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नागरीप्रचारिणी पत्रिका अपना सिर ढकती थीं। परंतु आश्चर्य यह है कि शायद आज तक कहीं चित्रों अथवा प्रतिमाओं की कोई प्राचीन स्त्री सिर से कपड़ा ओढ़े नहीं देखी गई। यह चादर ही कभी कभी अवगुंठन का कार्य भी करतो होगी। उसके ऊपर और नीचे की छोरें कमर पर पेटी के नीचे दबी रहती थी ( क्षौम्यान्तरितमेखले )। यह क्षौम शायद अधोवस्त्र था जिससे कटिप्रदेश छिपा रहता था और इसी प्रकार यह मेखला का आच्छादन हो सकता था। कभी कभी शीतलता प्रदान करने के लिये गर्मियों में कपड़ों में मोती गूंथे जाते थे। औरतें कभी कभी नीली और कभी सीता की भाँति लाल साड़ी ( काषायपरिवीतेन) पहनती थीं।
कालिदास के ग्रंथों में आभूषणों के विषय में असंख्य उल्लेख मिलते हैं जिनसे प्रकट होता है कि उस समय पुरुष और स्त्री दोनों
आभूषणों का खूब प्रयोग करते थे। साधाश्राभूषण
रणतया निम्नलिखित आभूषणों का व्यवहार होता था-केयूर, नूपुर, वलय (कंगन), मेखला, रशना अथवा कांची (करधनी), कुंडल, नथ, अंगुलीयक, हार, हेमसूत्र ('चेन'), मुक्ताओं
और रत्नों के अन्य प्राभूषण जो मस्तक पर और वेणी में गूंथकर पहने जाते थे। मुक्ताओं के ऐसे हार भी पहनते थे जिनके बीच में इंद्रनील जड़ा होता था। गीष्म ऋतु के वस्त्रों में भी आभूषण लगे रहते थे।
पुरुष भी प्राभूषण पहनते थे परंतु स्त्रियों की अपेक्षा बहुत कम । वे निम्नलिखित आभूषण पहनते थे-वलय, केयूर, मुक्ताहार और
हेमसूत्र। राजा कपालमणि अथवा मुकुट में पुरुष के आभूषण रहन धारण करते थे। पुरुष अंगुलीयक प्रथोत् अँगूठी का भी प्रयोग करते थे।
खियाँ बहुत से प्राभूषण धारण करती थीं। उनमें से मुख्य नीचे दिए जाते हैं-केयूर, नूपुर, वलय, बहुत प्रकार की मेखलाएं,
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