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नागरीप्रचारिणी पत्रिका वधू के प्रस्थान के समय गोरोचन, तीर्थमृत्तिका और दूर्वा आदि से उसे सजाते थे। ये सब मांगलिक वस्तुएँ थीं। साधारणतया पतिगृह के प्रति प्रस्थान करनेवाली वधुएँ शकुंतला की भाँति ही सजाई जाती थीं, जैसा निम्न वर्णन से ज्ञात होता है-शकुंतला के प्रस्थान के समय उसे चंद्रमा की भाँति एक श्वेत रेशमी वस्त्र दिया गया, फिर उसके चरण महावर से रंगे गए और तदुपरांत उसने प्राभूषण धारण किए। आभूषण पहन चुकने के बाद उसे दुकूल का एक जोड़ा दिया जाता था जो उसके ऊर्ध्व और अधो वस्त्र थे। पहला रेशमी वस्त्र कदाचित् आधुनिक चादर अथवा शाल का कार्य करता होगा। शकुंतला के प्रति कण्व के आशीर्वचन प्रस्थान के समय प्रत्येक वधू के प्रति कहे गए पिता के वचन आदर्श रूप में माने जा सकते हैं। वे इस प्रकार हैंशुश्रूषस्व गुरून्कुरु प्रियसखीवृत्ति सपनीजने
भर्तुवि प्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः । भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी
__ यान्त्येवं गृहिणीपद युवतयो वामाः कुलस्याधय: ॥ अर्थात् गुरुजनों की सेवा करो। सौतों के प्रति प्रिय सखी का व्यवहार करो। पति के विमुख होने पर भी उस पर रोष मत करो। परिजनों पर अतिशय दया करो। अपने सुंदर भाग्य के कारण गर्व मत करो। इस प्रकार ही प्राचरण करती हुई युवतियाँ गृहिणी-पद को प्राप्त करती हैं और इसके विपरीत आचरण करनेवाली अपने कुल में शूल की भाँति हो जाती हैं।
भूत्वा चिराय चतुरन्तमहीसपत्नी दैष्यन्तिमप्रतिरथ तनयं निवेश्य । भर्ना तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्ध शान्ते करिष्यसि पद पुनराश्रमेऽस्मिन् ॥
(१) अभि. शाकुं०, ४, १८ । (२) वही, १६।
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