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________________ भारतवर्ष की सामाजिक स्थिति ४७१ अर्थात् चतुरंतमही की चिरकाल तक सपत्नी सपत्नी होकर अपने और दुष्यंत के अप्रतिरथ पुत्र को पति के स्थान पर प्रतिष्ठित करके और उसे कुटुंबभार सौंपकर पति के साथ ही तुम अवश्य इस शांतिप्रद श्राश्रम में निवास करोगी । दूसरे श्लोक से यह भी ध्वनि निकलती है कि पत्नी एक बार पति के गृह जाकर शायद पिता के घर कभी नहीं लौटती थी । शकुंतला को पिता के आश्रम में आने की आज्ञा अपने गार्हस्थ्य के अंत में मिलती है, सो भी आश्रमवास के लिये, पितृ-गृह के लिये नहीं । पूर्व और उत्तर काल की भाँति कालिदास के समय में भी भारतीय समाज ने पत्नी के ऊपर पति को बड़े अधिकार दे रखे थे । पत्नी निरंतर पति की सेवा में उसकी अनुचरी बनी पत्नी रहती थी । प्रोषितपतिका का आचरण यक्षपत्नी की दिनचर्या से जाना जा सकता है। वह साधारणतया आदर्श पत्नी के रूप में चित्रित की गई है। मलिनवसना यक्षपत्नी पतिवंश का कीर्तिगान करने के निमित्त अपनी जंघाओं के ऊपर वीणा रखकर बैठती है परंतु दुःखावेग इतना तीव्र है कि वह अपने आँसू नहीं रोक सकती और वे निरंतर बह बहकर उसकी वीणा को भिगो देते हैं साथ ही बारंबार की अभ्यस्त मूर्छना भी उसे भूल जाती है । कभी तो वह देहली के फूलों को पति के कल्याणार्थ गिनती, कभी काकबलि जैसी अन्य क्रियाएँ संपादन करती क्योंकि 'पतिवंचिता पत्नियों के अधिकतर यही कार्य होते हैं । वह पर्यक छोड़कर पृथ्वी पर शयन करती थी और अपने केश तेल-रहित और सूखे रखती थी । वह अपने नख कभी नहीं काटती थी, सूखी वेणी कभी ( १ ) मेघदूत - उत्तर, २३ । ( २ ) वही, २४ । ( ३ ) वही, ३० । ४ ) वही, २३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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