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नागरीप्रचारिणी पत्रिका देनी पड़ती थी । यदि ऐसा न होता तो पतिंवरा स्वयंवर में अपना पति स्वयं क्योंकर वरण कर सकती थी ? यह तभी संभव था जब वधू की अवस्था उस विषय और समय की गुरुता को समझने में समर्थ होती। ___वर-वधू की अवस्थाओं की परिपक्कता इस बात से भी लक्षित होती है कि पाणिग्रहण के समय दोनों के शरीरों में रोमांच हो आता है । जब विवाह की विधियाँ समाप्त हो जाती थीं तब शीघ्र ही अच्छो तिथि पर विवाहांतक पुष्प-शय्या की रचना की जाती थी३ और तदनंतर आनंदपूर्वक विचरण (honeymoon ) के लिये दोनों अन्य सुंदर प्राकृतिक स्थानों को चले जाते थे। इन बातों से भी वर-वधू की परिपुष्ट अवस्था के प्रमाण का पोषण होता है। वय-क्रम से युवाओं और युवतियों का विवाह करने की प्रथा प्रचलित थी। सबसे प्रथम ज्येष्ठतम और अंत में कनिष्ठतम भाई विवाह करता था, जैसा 'परिवेत्ता: ५ पद से विदित होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि विविध प्रांतों में भिन्न भिन्न विवाहवसन प्रयुक्त होते थे। मालविकाग्निमित्र नाटक में परिव्राजिका
_ से प्रार्थना की गई है कि वह मालविका को विवाह-वसन
* विदर्भ देश में व्यवहृत होनेवाले वैवाहिक वसनों से सुसज्जित कर दे। वधू विवाहनेपथ्य के रूप में रेशमी
(१) कुमारसंभव, ७ । (२) वही, ७७ । (३) वही, १४-क्षितिविरचितशय्यं कौतुकागारमागात् ।। (४) वही, ८। (५) स हि प्रथमजे तस्मिनकृतश्रीपरिग्रहे ।
परिवेत्तारमात्मानं मेने स्वीकरणाद्भुवः ॥-रघु०, १२, १६ । (६) भगवति, यत्त्व प्रसाधनगवं वहसि, तदर्शय मालविकायाः शरीरे वैदर्भ विवाहनेपथ्यमिति । -मालविका०, ५, विदूषक ।
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