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भारतवर्ष की सामाजिक स्थिति साधारणतया यह विचार था कि समान कुल, गुण और वयवाले वर-वधू विवाह-संबंध में जोड़े जायें; इसी हेतु यह आशा की जाती थी कि पाश्रम की कन्या किसी तपस्वी को ही ब्याहे, जैसा विदूषक के निम्न-लिखित व्यंग्यपूर्ण वक्तव्य से प्रमाणित होता है-"तब देव शीघ्र उसकी रक्षा करें जिसमें वह इंगुदी-तैल से चटपटे बालोंवाले किसी तपस्वी के हाथ न लग जायरे ।"
उस समाज में बहु-विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी और श्रीसंपन्न पुरुषों की विशेषकर कई पत्नियाँ होतो थीं । राजागण वो प्रायः
- बहुपत्नीवाले होते थे। शकुंतला और बहु-विवाह प्रथा धारिणीर आदि की कई सपत्नियाँ थीं।
हिंदू शास्त्रों के अनुसार असवर्ण विवाह नहीं होते थे परंतु राजा लोग कभी असवर्ण विवाह कर लेते थे, जैसे राजा अग्निमित्र
की रानी धारिणी के पिता ने एक विवाह वर्ण-विवाह
असवर्ण भी किया था। इसी कारण मालविकाग्निमित्र नाटक में सेनापति वीरसेन को धारिणी का अवर्ण भ्राता कहा गया है।
विवाह पुरुषत्व और स्त्रीत्व के पूर्ण विकास के अनंतर ही होता था। वधू अपने प्रेम और पत्नीत्व के उत्तरदायित्व एवं वैवाहिक
_ विधियों को भली भांति समझती थी। कई वर-वधू की अवस्था
बार तो उसे विवाह के समय अपनी अनुमति
(१) रघुवंश, ६, ७६. (२) मा कस्यापि तपस्विनः इन दीतैलचिक्कणशिरषस्य हस्ते पतिष्यति ।
-अभि. शाकुं०, २, विदूषक । (३) बहुधनस्वादबहुपत्नीकेन तत्र भवता भवितव्यम् । विचार्यता यदि काचिदापन्नसत्त्वा तस्य भार्यासु स्यात् । -वही, ६, राजा ।
(४) वही । (५) मालविकाग्निमित्र ।
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