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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
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इतना होने पर भी इसी उद्धरण की दबी ध्वनि से प्रतीत होता है कि उस समय इस रीति का प्रचार नहीं था और कभी कभी इसकी निंदा भी की जाती थी, जैसा कि नीचे लिखे वक्तव्य से सिद्ध होता है - " अतः इस प्रकार का संबंध, विशेषकर एकांत में, पूर्ण परीक्षा के अनंतर स्थिर करना उचित है । अनजाने हृदयों के प्रति मित्रता इसी प्रकार घृणा और में परिणत हो जाती है ।" दोनों पक्ष शत्रुता के विशेष परिचय के बाद ही विवाह उचित है । यह वक्तव्य आज भी विवाहार्थियों के लिये पथ-प्रदर्शक है। पूरी समीक्षा और परिचय के बाद ही संबंध स्थिर करना ठीक है । यह बात उस समय और भी आवश्यक हो जाती है जब विवाह अनजाने और अव्यक्त रूप से करना हो । गांधर्व रीति के विवाह में ही प्राय: प्रेमपत्र ( मदनलेख २) लिखे जाते हैं।गे । चत्रियों में इस रीति की प्राचीन काल में प्रविष्ठा थी ( चत्रियस्तु गान्धर्वो विवाह श्रेष्ठ उच्यते ) ।
वर द्वारा वधू -याचना
कभी कभी ऐसा भी होता था कि वर स्वयं अपनी भावी पत्नो को उसके माता-पिता से भी माँग लिया करता था । कभी कभी ऐसी याचना कन्या के सम्मुख ही की जाती थी । तब लज्जा से अवनत उसके नेत्र हस्तकमल की पंखड़ियाँ गिनने लगते थे । इस प्रकार की याचना दैव विवाह में भी हो सकती थी परंतु उसमें वधू के पिता को वर बैलों का जोड़ा आदि भेंट करता था । संभव है, इस प्रकार का विवाह प्राजापत्य के ही अंतर्गत श्रा सके
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(१) अतः परीक्ष्य कर्तव्य विशेषात्सङ्गतं रहः ।
श्रज्ञातहृदयेष्वेव वैरीभवति सौहृदम् ॥ - श्रभि० शाकुं०, ५, २४ ।
(२) मदनलेखोऽस्य क्रियताम् ।—वही, ३, प्रियंवदा । (३) एवंवादिनि देवर्षो पार्श्वे पितुरधोमुखी ।
कमलपत्राणि गणयामास पार्वती ॥ कुमार०, ६, ८४
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