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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
वर-वधू को इस प्रकार आशीर्वाद दिया - यह पावन अग्नि तुम्हारे विवाह कर्म की साक्षी है। तुम दोनों धर्माचरण करनेवाले बीपुरुष बना' । तब वर शिव वधू से कहते हैं - हे उमा ! क्या तुम ध्रुव की चमक देखती हो ? तुम्हारी भक्ति भी उसी ध्रुव ज्योति की भाँति होनी चाहिए । इस पर वधू ने उत्तर दिया- 'हाँ, देखती हूँ।' अब वैदिक क्रियाएँ समाप्त हुई और लौकिक क्रियाओं का आरंभ हुआ । दंपति एक चौकोर वेदी पर रखे स्वर्णासन पर बैठे और उन पर अक्षत छिड़का गया रे ।
जब विवाह की सारी विधियाँ समाप्त हो गई तब उत्सव का प्रारंभ हुआ । एक नाटक खेला गया जिसमें यात्रियों ने सुंदर अभिनय के साथ भावात्मक नृत्य किया । नाट्य- कला की प्रौढ़ता से उत्पन्न अंगों के सजीव संचालन से हृदयांतर के सारे भाव व्यक्त हो जाते थे । ये नटियाँ कौशिकी आदि वृत्तियों में पारंगता थीं । अभिनय के अनंतर वर-वधू निकुंज (कौतुकागार) में गए जहाँ मंगलमय कनककलश रखे हुए थे और पुष्पशय्या सजी थी । अंत में विवाह के अनंतर शिव और पार्वती ( वर-वधू ) प्रकृति विहार के निमित्त इधर
(१) वधूं द्विजः प्राह तवैष वत्से वह्निर्विवाहं प्रति कर्मसाक्षी । शिवेन भर्त्रा सह धर्मचर्या कार्या त्वया मुक्तविचारयेति ॥ -कुमार०, ७, ८३
( २ ) ध्रुवेण भर्त्रा ध्रुवदर्शनाय प्रयुज्यमाना प्रियदर्शनेन । सादृष्ट इत्याननमुन्नमय्य हीसनकण्ठी कथमप्युवाच ॥ - वही, ७,
८५ ।
(३) वही, ७, ८८
( ४ ) तौ सन्धिषु व्यञ्जितवृत्तिभेदं रसान्तरेषु प्रतिबद्धरागम् ।
श्रपश्यतामप्सरसां मुहूर्त प्रयोगमाद्यं ललिताङ्गहारम् ।। वही, ७,३१ (५) कनक कलशयुक्तं भक्तिशोभासनाथं
चितिविरचितशय्य कौतुकागारमागात् — वही ७, ३४
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