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भारतवर्ष की सामाजिक स्थिति ४५७ और यौवन में उसके समान होता था और जिसमें अन्य गुणों के अतिरिक्त विनयगुण विशेष होता था। इस प्रकार के पति का वह वरण करती थी। कांचन रत्न को प्राप्त करता था। सुंदर स्रज को वह स्त्र्योचित लज्जापूर्वक अपने वृणीत पति के गले में छोड़ देती थी । इस प्रकार नागरिकों के हर्षोत्कर्ष के बीच स्वयंवर की विधि समाप्त हो जाती थी। तदुपरांत वर-वधू तोरण, पताका और अन्य मंगल सामग्रियों द्वारा सुसज्जित राजमार्ग से राजप्रासाद की ओर प्रस्थान करते थे। नागरिकों और अन्य लोगों द्वारा एक बड़ा और सुंदर जलूस तैयार हो जाता था जिसे देखने के लिये राजमार्ग पर खुलनेवाली प्रासादों की खिड़कियाँ स्त्रियों के मुखमंडलों से भर जाती थी। तब वर गज से उतरकर मंगल-वस्तुओं से सुशोभित राजप्रासाद में प्रवेश करता था और महिलाओं के गीतामृत से उसके कर्ण धन्य हो जाते थे। वहाँ वह एक महार्ह
(१) कुलेन कान्त्या वयसा नवेन गुणैश्च तैस्तैवि नयप्रधानैः । त्वमात्मनस्तुल्यममुं वृणीष्व रत्नं समागच्छतु काञ्चनेन ।
-रघु०, ६, ७६ । (२) दृष्टया प्रसादामलया कुमारं प्रत्यग्रहीत्संवरणनजेव ।।
-वही, ६, ८० । तया स्रजा मङ्गलपुष्पमय्या विशालवःस्थवलम्बया सः । भमस्त कण्ठापितघाहुपाशां विदर्भराजावरजां वरेण्यः॥
-वही, ६, ८४. (३) वही, ७, १०।
तावत्प्रकीर्णाभिनवोपचारमिन्द्रायुधयोतिततोरणाङ्कम् । वरः स वध्वा सह राजमार्ग प्राप ध्वजच्छायनिवारितोष्णम् ॥
-वही, ७,४। (४) वही, ७, "। (१५) इत्युद्गताः पौरवधूमुखेभ्यः शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखा: कुमारः।
-वही, ७, १६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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