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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सिंहासन पर बिठाया जाता था और उसे सरत्न मधुपर्क-मिश्रित अर्ध्य प्रदान करते थे। इस प्रकार उसकी द्वार-पूजा की जाती थी। फिर वह दुकूलवस्त्र का जोड़ा (धोती और अँगोछा ) धारण करता था। फिर उसे विनीत अवरोधरक्षक विवाह-क्रिया के संपादनार्थ वधू के समीप ले जाते थे । तब पूजा के अनंतर पुरोहित अग्नि में होम करके और अग्नि को ही साक्षी बनाकर वर और वधू को विवाहसूत्र में बाँध दिया करता था । तब वर वधू का हस्त ग्रहण करके वधू के साथ अग्नि की परिक्रमा करता था। फिर याजक गुरु द्वारा बताई गई वधू अग्नि में लाज-विसर्जन क्रिया करती थी । शमी वृक्ष के पल्लवों और लाज के होम से उत्पन्न धुएँ की सुगंध' अपूर्व होती थी। इसके बाद पति और पत्नी स्वर्णसिंहासन पर बैठते थे और तब स्नातक राजा और पतिपुत्रवाली महिलाएँ विशिष्टता के क्रम से उनके ऊपर भीगे अक्षत फेंकती थीं । अब अन्य उपस्थित राजाओं की ओर ध्यान दिया जाता था और उनकी उचित पूजा-भेट करके उनको बिदा किया जाता था। फिर विवाह की शेष विधियों को पूर्णतया समाप्त करके वर नववधू के साथ अनंत
(.) महार्हसिंहासनसंस्थितोऽसौ सरत्नमय मधुपर्कमिश्रम् ।
भोजोपनीतं च दुकूलयुग्मं जग्राह साधं वनिताकटाक्षः ॥
(२) दुकूलवासाः स वधूसमीपं निन्ये विनीतैरवरोधरौः।-वही, ७, १६ (३) वही, ७, २० । (४) हस्तेन हस्तं परिगृह्य वध्वाः ।-वही, ७, २१ । (५) प्रदक्षिणप्रक्रमणास्कृशानाः।-बही, ७, २४ । (६)लाजविसर्गमग्नी!-वही, ७, २५ । (७) वही, ७, २६ । (८) वही, ७, २८ । (8) वही, ७, २६ ।
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