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नागरीप्रचारिणी पत्रिका परांत भाट पहुँचकर उपस्थित राजाओं के-सूर्य और चंद्र वंश केकीर्ति-गान करते थे। इसी समय मंगलार्थ दिगंत-व्यापी शंख और तूर्य की ध्वनि की जाती थी। फिर विवाहवेशधारिणी पतिंवरा पालकी में चढ़कर परिजनों द्वारा अनुसृत मंचों के मध्य राजमार्ग पर उपस्थित होती थी। उसकी कमनीयता सबके नेत्रों को अपनी ओर खींच लेती थी। राजा भी उसको अपनी ओर प्राकृष्ट करने के लिये विविध शृंगार-चेष्टाएँ करते थे (शृंगारचेष्टा विविधा बभूवुः )। तब कन्या की प्रिय सखी, जो उपस्थित राजाओं की वंश-कीर्ति से पूर्ण अवगत होती थी, उसे एक एक नृपति के सम्मुख ले जाकर उसके रूप-गुण एवं कुल का बखान करती हुई। उस राजमार्ग पर आगे बढ़ती थी। यह सखी बड़ी चतुर होती थी। इसकी चातुरी पतिंवरा के हृदय पर उचितानुचित प्रभाव डाल सकती थी। प्रायः अपने स्वामी का वरण तो कन्या अपने हृदय में बहुत पहले ही कर लेती होगी परंतु खुले स्वयंवर में राजाओं और दर्शकों के सम्मुख उसके वरण को व्यवहारौचित्य मिलना पावश्यक था। “रात्रि के समय संचारिणी दीपशिखा की भाँति पतिंवरा जिस राजा के सामने से निकल जाती थी वह राजमार्ग पर बनी अट्टालिका की भांति विवर्ण हो जाता था। फिर वह उस राजा के सम्मुख जाकर रुकती थी जो कुल, कांति
(.) रघु०, ६, ८। (२) वही, ६, । (३) मनुष्यवाह्य चतुरस्रयानमध्यास्य कन्या परिवारशोभि । विवेश मच्चान्तरराममार्ग पतिंवरा क्लुप्तविवाहवेषा ।
-वही, ६,१०। (४) वही, ६, २०॥ (५) संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिवरा सा । नरेन्द्रमााड इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः॥
-वही, ६, ६.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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