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भारतवर्ष की सामाजिक स्थिति
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स्वयंवर
कन्या का पिता अथवा भाई स्वयंवर में स्वयं आने के लिये अथवा अपने युवराज को उसमें भाग लेने के लिये भेजने के अर्थ राजाओं को निमंत्रण भेज देता था' । राजा लोग अपनी सेनाओं और शिविरों को साथ लेकर स्वयंवर के लिये प्रस्थान करते थे । कन्या का पिता अपने नगर के द्वार पर इनका स्वागत करता था रे । फिर इन्हें राजप्रासाद में ले जाता था जिसका द्वार पूर्ण कुंभ ४ जैसी सुंदर मंगलवस्तुओं से सुशोभित रहता था । दूर दूर के अनेक राजा वधूविजय के निमित्त परस्पर ईर्ष्यालु हृदय से वहाँ उपस्थित होते थे । प्रातःकाल वंदीजन आकर इन राजाओं को इनकी वंशप्रशस्ति सुना सुनाकर जगाते थे । तदनंतर राजा लोग स्वयंवर के अखाड़े में सुंदर मंचों पर जाकर बैठते थे । ये मंच कुछ ऊँचाई पर बड़े दामों के बने हुए होते थे जिन तक सुंदर सोपानमार्ग से पहुँचते थे । इन मंचासनों में रत्न लगे हुए होते थे । ये ऊपर से रंग-बिरंगे आच्छादनों से ढके हुए होते थे । इन्हीं मंचों पर बहुमूल्य आभूषण धारण किए हुए राजा लोग विराजमान होते थे । तदु(१) श्रथेश्वरेण क्रथकांशकाना स्वयंवरार्थं स्वसुरिन्दुमत्याः । श्राप्तः कुमारानयनोत्सुकेन भोजेन दूता रघवे विसृष्टः ॥ - रघु०, १, ३६ ।
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(२) तस्येापकार्या रचितोपचारा । - वही, ५, ४१ ।
( ३ ) तं तस्थिवांसं नगरोपकण्ठे तदागमारूढगुरुप्रहर्षः । — वही, १, ६१ । ( ४ ) प्राग्द्वारवेदिविनिवेशितपूर्णकुम्भाम् । – वही, १,६३ ।
(५) तत्र स्वयंवर समाहृतराजलोकम् । - वही, ५, ६४ ।
( ६ ) वही, १, ७५ ।
( ७ ) स तत्र मञ्च षु मनेाज्ञवेषान्सिंहासनस्थानुपचारवत्सु । - वही, ६, १ । < ८) सोपानपथेन मञ्चम् । वही, ६, ३ ।
( १ ) परार्ध्य वर्णास्तरणोपपचमासेदिवान् रत्नवदासनं सः । वही, ६, ४ । ( १. ) वही, ६, ६ ।
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