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नागरीप्रचारिणी पत्रिका रैदास काशी के चमार थे। प्रियादासजी ने इनके संबंध में कई आश्चर्यजनक कहानियाँ लिखी हैं। चित्तौर की झाली रानी इनकी शिष्या बतलाई जाती हैं। आदि ग्रेय में रविदास नाम से इनकी कविताओं का संग्रह किया गया है। ये स्वयं बहुत ऊँचे ज्ञानी भक्त थे जिसे मूर्ति की आवश्यकता नहीं रह जाती परंतु दूसरों के लिये वे मूर्ति की आवश्यकता समझते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने एक मंदिर बनवाया था, जिसके वे स्वयं पुजारी रहे थे। इनका भी अलग पंथ चला जिसमें अब केवल इन्हीं की जात के लोग हैं जो अपने को बहुधा चमार न कह कर रैदासी' कहते हैं।
परंतु रामानंद के सबसे प्रसिद्ध शिष्य कबीरदास थे जिन्होंने भक्ति के मार्ग को और भी प्रशस्त, विस्तृत और उदार बना दिया। उनका जीवन-वृत्त स्वतंत्र रूप से आगे दिया जायगा ।
सुरसुरानंद ब्राह्मण थे। उनके विषय में विशेष कुछ नहीं मालूम है। इतना अवश्य प्रकट होता है कि वे बहुत सच्चे सुधारक रहे होंगे। खान-पान के संबंध में शायद उन्होंने रामानंद जी से अधिक सुधार की मात्रा दिखाई हो। भक्तमाल में लिखा है कि इनके मुँह में म्लेच्छ की दी हुई रोटी भी तुलसीदल हो जाती थी।
अगस्त्य-संहिता के अनुसार रामानंद का जन्म संवत् १३५६ (१२६६ ई० ) में और मृत्यु सं० १४६७ (१४१० ई० ) में हुई।
_ भिन्न भिन्न दृष्टियों से विचार करने से भी यह ७. रामानंद का समय
- समय गलत नहीं मालूम होता। वे रामानुज की शिष्य-परंपरा की चौथी पीढ़ी में हुए हैं। रामानुज की कर्मण्यता का क्षेत्र तीन राजाओं का समय रहा है जिनका शासनकाल सं० ११२७ (१०७० ई०) से १२०३ (११४६ ई०) तक ठहरता है। प्रस्तु, यदि हम उनकी मृत्यु सं० १२१८ (प्रायः ११६०ई०) में भी मानें और एक एक पीढ़ी के लिये तीस तीस
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