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(१६) भारतवर्ष की सामाजिक स्थिति
कालिदास के ग्रंथों के आधार पर
[ लेखक-श्री भगवतशरण उपाध्याय, लखनऊ ] भारतवर्ष में हिंदू-समाज की व्यवस्था प्रायः सदा वही थी जो माज है। यह व्यवस्था बहुत प्राचीन है और इसका उल्लेख
किसी न किसी रूप में हमें मानव-जाति की समाज
प्रथम पुस्तक 'ऋग्वेद' में भी मिलता है। समाज को चार वर्षों में विभक्त करके उसमें अक्षय शक्ति एवं अद्भुत कर्मण्यता भरी गई थी। कवि कालिदास ने भी अपने ग्रंथों में उन परंपरागत प्राचीन वह्ल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-का वर्णन किया है। प्रथम तीन वर्णों को 'द्विज' कहते थे क्योंकि वे विविध धार्मिक एवं सामाजिक क्रियाओं और संस्कारों से पूत होकर एक प्रकार से द्वितीय जन्म धारण करते थे जिसका उन्हें, विशेष कर चतुर्थ वर्ण शूद्रों पर, एक खास फायदा था। समाज के इन चारों अंगों के अपने अपने विशिष्ट वर्ण कर्म थे जिनका विधान स्मृतियाँ करती थीं। राजा का यह एक प्रधान कर्तव्य था कि वह अपनी प्रजा को उचित मार्ग पर ले चले, उन्हें धर्मच्युत न होने दे। ऐसा न हो कि कहीं कोई अपने वर्ण की सीमा का उल्लंघन कर जाय। इस कारण राजा को वर्णाश्रम-धर्म का रक्षक कहते थे ( वर्षाश्रमाणां रक्षिता)। वह स्वयं वर्णाश्रमधर्म की स्थिति की मर्यादा का पोषक (स्थितेरभेचा ) था और अपनी प्रजा को उसी पथ पर प्रारूढ़ करता था। इस धर्ममय रथ (.) असावत्रभवान्वर्णाश्रमाणां रक्षिता प्रागेव ।
-अभिज्ञानशाकुन्तल, अंक। वर्णाश्रमावेषणजागरूकः । -रघुवंश १४, ८५ ।
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