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________________ ४५२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका का राजा सारथी था जो अपनी प्रजा को उसमें बैठाकर इस भाँति रथ को हाँकता था कि रथों की पुरानी लीकों पर ही उसके चक्र चलते थे, प्राचीन धर्मवृत्ति से वह अपनी प्रजा को रेखा मात्र भी नहीं टलने देता था । इस प्रकार, कालिदास के उल्लेखानुसार, उस समय के भारतीय शास्त्रानुमोदित नीति और वर्णधर्म का अक्षरशः पालन करते थे। यद्यपि, जैसा हम आगे बतलाएँगे, कालिदास के समय के स्वच्छंद, प्रसन्न एवं कलाप्रिय और सुरुचिपूर्ण भारतीय समाज में उच्छृखलता और कर्तव्यच्युति के उदाहरण सर्वथा अज्ञात नहीं थे तथापि जन-साधारण की प्राचारप्रियता कुछ वैसी ही थी जैसी ऊपर बतलाई गई है। वर्णाश्रमी साधारणत: प्राचार. पूत थे और वर्णाश्रम-धर्म की रक्षा राजा उत्साहपूर्वक करता था। वर्णसीमा का अतिक्रमण करनेवाला बड़े कड़े दंड का अधिकारी था और स्वयं कालिदास, जो वर्णाश्रम-धर्म के बड़े पृष्ठपोषक हैं जैसा उनके इस पक्ष के बारंबार के वर्णनों से विदित होता है, राजा राम द्वारा 'द्विजेतरतपस्विसुतारे के वक्ष के अवसर पर बड़ी प्रानंद-ध्वनि करते हैं क्योंकि उनका विश्वास था कि द्विजसेवाधिकारी शूद्र तपश्चर्याकर्म करके वर्णधर्म का उल्लंघन करता है, उस सामाजिक व्यवस्था को अतिशय क्षति पहुँचाता है जिसकी रक्षा रघुवंश के राजा प्राणपण से करते थे। ___ आश्रमो३ की संख्या भी चार थी जिनमें द्विजो का जीवन-काल विभक्त था। ये पाश्रम इस प्रकार थे-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। वर्णधर्म की रक्षा की भाँति ही आश्रम-धर्म के (१) रेखामात्रमपितुण्णादा मनावर्मनः परम् । न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः ॥-रघु. १, १७ । (२) वही, ६, ७६ । (३) वही, १,८; १४, ५। अभि. शाकु०,५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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