________________
४४८
नागरीप्रचारिणी पत्रिका
बनिये' तो 'बांधों के बानी' का अर्थ है जो इसी प्रसंग में आया है। परंतु हड़बड़ी के कारण पांडेयजी ने पुस्तक को अच्छी तरह पढ़ा नहीं, नहीं तो उन्हें देख पड़ता कि उक्त संपादक ने 'जिंद' के माने 'जिन' दिए हैं, 'बांधोगढ़ के बनिये' नहीं । 'जिंद' शब्द पर एक छोटा सा निबंध ही लिखा जा सकता है पर उसके लिये मेरे पास इस समय अवसर नहीं है।
1
पांडेयजी ने डा० त्रिपाठी के इस मत का व्यर्थ ही विरोध किया है कि कबीर के क्रांतिकारी सिद्धांतों का प्रचार कार्य सिकंदर लोदी सरीखे कट्टर और अत्याचारी सुलतान के राज्य में संभव नहीं था । पांडेयजी का कथन है कि कबीर ने पहले पहल इस्लाम का विरोध नहीं किया, इसलिये वे चैन से हिंदुओं की श्रुति स्मृति, अवतार आदि की निंदा करते रहे; किंतु अंत में ज्योंही इस्लाम का विरोध करने लगे त्योंही उन्हें उसका मजा चखना पड़ा और अंत में वे मगहर भाग गए। इसमें पांडेयजी ने स्पष्ट ही यह बात मानी है कि कबीर ने अपने पद्यों की किसी विशेष क्रम से रचना की, जिसे मानने के लिये कोई भी आधार नहीं है । वस्तुत: जैसा डा० त्रिपाठी कहते हैं, कबीर के ऊपर ऐसी क्रूर दृष्टि किसी मुसलमानी शासक की पड़ी ही नहीं जैसी सिकंदर लोदी के शासनकाल में पड़नी संभव थी । मगहर भी वे किसी मुसलमान शासक के अत्याचार से भागकर नहीं गए । सुलतान के अत्याचार से मगहर ही में उनकी रक्षा कैसे हो सकती थी ? वहाँ नवाब बिजली खाँ की संरक्षकता भी उनकी चमड़ी को साबित न रख सकती । वह खुद बिजलीखाँ की चमड़ी को अंदेशे में डाल देती । असल में वे मगहर इसलिये गए कि काशी में उनका रहना हिंदुओं ने दूभर कर दिया था । शाहे वक्त कोई ऐसा उदार व्यक्ति था जिससे जान पड़ता है कि मुसलमानों को भी कबीर को सजा दिला
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com