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नागरीप्रचारिणी पत्रिका Benares and afterwards I went to live at Magahar. (Sikh Religion, vol. 6, पृ० १३०)
इस संबंध में सबसे पहले ध्यान रखने योग्य बात यह है कि 'गुरु ग्रंथ साहब' के भिन्न भिन्न संस्करणों में पाठ-भेद नहीं हो सकता। उसके पद्यों का मंत्रतुल्य आदर होता है। उसकी लिखाई छपाई में अत्यंत सावधानी रखी जाती है। कोई मात्रा टूट जाय, छूट जाय, बढ़ जाय सो तो शायद संभव हो भी परंतु ऐसी गलती उसमें संभव नहीं जिसमें अचरों और अर्थ का इतना उलट-पुलट हो जाय और वह भी प्रचलित प्रवाह के विरुद्ध। मैंने तरन-तारन के हिंदी संस्करण के इस पाठ को कुछ गुरुमुखी ग्रंथों से मिलवाया है। परंतु पाठ हर हालत में एक ही मिला है। इस पाठ में मेकालिफ के अनुवाद के अंतर का कारण दूसरा पाठ नहीं है बल्कि उनके मस्तिष्क पर अधिकार कर बैठा हुआ प्रचलित प्रवाद है। मैं नहीं कहता कि आदि ग्रंथ के अतिरिक्त और जगह भी इसका ठोक यही अनुवाद मिलेगा। परंतु वस्तुतः यह पद दूसरी जगह अभी तक मिला नहीं है। अतएव दूसरे पाठ का प्रश्न हो नहीं उठता। मेकालिफ का गलत अनुवाद उपके अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर सकता। उन्होंने आदि ग्रंथ का अनुवाद किया है,
और चीजों का नहीं। अगर इस पद का पाठ गलत है तो वह 'प्रादि ग्रंथ'कार की गलती है। परंतु प्रचलित प्रवाद को छोड़कर कोई बात ऐसी नहीं है जो इस पाठ के विरोध में खड़ी हो । ___'आई-जाई का झगड़ा कोई विशेष अड़चन खड़ो नहीं करता। कबोर को काशी छोड़कर आए हुए अभी थोड़े ही दिन हुए हैं, मन उनका काशी ही में है। काशी के उन्हें अत्यंत प्रिय होने के
(१) एक ही हवाला यहीं देते हैं, देखो राय साहब गुलाबसिंह ऐंड संस का पूजावाला बड़ा संस्करण, पृ० १६६ ।
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