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नागरीप्रचारिणी पत्रिका ये पद्य गोरखनाथ की सबदी के हैं। इनसे पता चलता है कि वे मुसलमानों के हृदय में अहिंसा की भावना भरना चाहते थे जिससे उन्हें अपने हिंदृ पड़ोसियों के साथ मेल-जोल से रहने की प्रावश्यकता मालूम पड़ती। संभवत: बाबा रतन हाजी उनके मुसलमान चेलों में से एक थे, जिन्होंने अपने ग्रंथ काफिर बोध में ऐक्य के पक्ष में बहुत कुछ कहा है ।
पृ० ५२२ की एक टिप्पणी में पांडेयजी ने बड़ा अनुग्रह करके मेरा स्मरण किया है, और नागरीप्रचारिणी पत्रिका, भाग ११, अंक ४ में छपे हुए मेरे लेख 'हिंदी-काव्य में योग-प्रवाह' में से एक अवतरण दिया है जिसमें मैंने कहा है-"निर्गुण शाखा वास्तव में योग का ही परिवर्तित रूप है। भक्ति-धारा का जल पहले योग के ही फाट पर बहा था", इस पर अपना अभिमत देते हुए पांडेयजी ने सत्कामना की है-"भक्ति एवं योग के विवाद में न पड़, हमें तो यही कहना है कि यदि उक्त पंडितजी इस विषय की मीमांसा में तल्लीन रहेंगे तो एक नवीन तथ्य का उद्घाटन ही नहीं प्रतिपादन भी हो जायगा।" पांडेयजी की सत्कामना के लिये मैं कोटिशः धन्यवाद देता हूँ। परंतु मुझे इस बात का पता नहीं चला कि पौडेयजी 'भक्ति एवं योग का विवाद' कहाँ से ले आए हैं। जान पड़ता है कि उक्त लेख में मेरे इस कथन की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया- "गोरखनाथ का हठयोग केवल ईश्वर-प्रणिधान में बाहरी सहायक मात्र है। न कबोर ने ही वास्तव में योग का खंडन किया है और न गोरखनाथ ने हो केवल बाहरी क्रियाओं को प्रधानता दी है।" यदि उन्होंने इन वाक्यों की ओर ध्यान दिया होता तो उन्हें 'भक्ति एवं योग के विवाद में न पड़' कहने की आवश्यकता न होती-चाहे यह कहकर वे स्वयं इस झगड़े में न पड़ना चाहते हैं। चाहे मुझे उसमें न पड़ने का आदेश देते हों।
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