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नागरीप्रचारिणी पत्रिका रज्जब दास के संग्रह पंथ सर्वागी में उनका एक और पद संगृहीत है जो यहाँ दिया जाता है
हरि बिन जन्म वृथा खोयो रे। कहा भयो अति मान बढ़ाई, धन मद अंध मति सोयो रे ॥ अति उतंग तरु देखि सुहायो, सैवन कुसम सूवा सेयो रे। सोई फल पुत्र-कलन विषै सुष, अंति सीस धुनि धुनि रोयो रे ॥ सुमिरन भजन साध की संगति, अंतरि मन मैल न धोयो रे ।
रामानंद रतन जम त्रासैं, श्रीपति पद काहे न जोयो रे ॥ इसमें उन्होंने निवृत्ति मार्ग का पूर्ण उपदेश दिया है।
रामानंद जी की विचार-धारा बहुत उदार थी जिसके कारण उनके उपदेशामृत का पान करने के लिये ऊँच नीच सब उनके पास
घिर आते थे। उनके शिष्यों में से, जिनका ६. रामानंद के शिष्य निर्गण विचारधारा से संबंध है, पापा, सघना, धन्ना, सेन, रैदास कबीर और शायद सुरसुरानंद हैं।
पीपा गँगरौनगढ़ के खीची चौहान राजा थे और अपनी छोटी रानी सीता के सहित रामानंद जी के चेले हो गए थे। जनरल कनिंघम के अनुसार पीपाजी जैतपाल से चौथो पीढ़ी में हुए थे। [(१) जैतपाल, (२) सावतसिंह, (३) राव करवा, (४) पोपाजी, (५) द्वारकानाथ, (६) अचलदास।]
अबुल फजल ने लिखा है कि मानिकदेव के वंशज जैतपाल ने मुसलमानों से मालवा छीन लिया था। यह घटना पृथ्वीराज की मृत्यु के १३१ वर्ष पोछे सं० १३८१ (सन् १३२४ ई०) की बताई जाती है। जैतराव मानिकदेव से पाँचवों पीढ़ी में हुए थे और मानिकदेव पृथ्वीराज के समकालीन थे। फिरिश्ता के अनुसार पोपाजी से दो
(.) पौड़ी हस्तलेख', पृ. ४२३ (अ)।
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