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नागरीप्रचारिणी पत्रिका केलाग महाशय ने 'परीवा' को सं० 'प्रथमा' से निकला हुआ माना है। उनका कथन है कि 'प्रथमा' के 'थ' का लोप, तथा 'म' के स्थान पर 'व' हो जाने से 'प्रवा' शब्द बना होगा और फिर युक्तविकर्ष से 'प्रवा' का 'परवा' और तत्पश्चात् 'परीवा' बन गया होगा। पर इस प्रकार 'थ' का मनमाना लोप कराकर खींचतान करके हठात् 'परीवा' को 'प्रथमा' से निकला हुआ प्रमाणित करना केलाग महोदय की भूल है। 'परीवा' शब्द 'प्रथमा' से नहीं वरन् 'प्रतिपदा से निकला है। सं० 'प्रतिपदा' का प्राकृत में 'पाडिवा" रूप हो जाता है। इसी 'पाडिवा' से 'पाड़िवा' और फिर 'परीवा' बन गया है। मराठी में अब भी 'पाड़िवा' रूप विद्यमान है।
'दूज', 'तीज', 'चौथ' तथा 'छठ' की उत्पत्ति का वर्णन ऊपर क्रमवाचक शब्दों की उत्पत्ति के प्रसंग में हो चुका है। खड़ी बोली के शेष अन्य तिथि-बोधक शब्द संस्कृत के शब्दों से बहुत अधिक मिलते हैं, अत: उनकी उत्पत्ति को समझने में कोई कठिनता नहीं है।
संस्कृत के तत्सम तिथिबोधक शब्दों का भी प्रयोग प्रायः खड़ी बोली में होता है।
(४) आवृत्तिवाचक खड़ी बोली के प्रावृत्तिवाचक संख्यावाचक शब्द पूर्णक-बोधक तथा अपूर्णांक-बोधक संख्यावाचकों के बाद 'गुना' लगाकर बनाए जाते हैं; जैसे-'नौगुना', 'दसगुना', 'हजारगुना', 'ढाई गुना', 'पौने चार गुना' इत्यादि। स्त्रीलिंग में 'गुना' का 'गुनी रूप हो जाता है; जैसे-'नौगुनी', 'हजारगुनी', 'ढाई गुनी' इत्यादि। 'गुना' शब्द के योग से कुछ पूर्णीक-बोधक संख्यावाचकों में थोड़ा सा
(१) देखिए-Kelogg's Grammar of Hindi $ 252 (a). (२) देखिए-वररुचि कृत प्रा० प्रकाश, परिशिष्ट १, सूत्र २ ।
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