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नागरीप्रचारिणी पत्रिका 'सहा' (= ६ ) से 'सहावा'; पंजाबी 'छे' ( = ६) से 'छेवा' तथा सिंधी 'छह' ( = ६) से 'छहो'।
'एकादश' से लेकर 'ऊनविंशति' तक के क्रमवाचक शब्दों का अनुकरण हिंदी में नहीं पाया जाता। संस्कृत में उपर्युक्त क्रमवाचक शब्द अंतिम 'अ' के स्थान में पुँल्लिंग, खोलिंग तथा नपुंसक लिगों में क्रमश: 'या', 'ई' और 'म्' लगाकर बनाए जाते हैं; जैसे'एकादशा' ( = ग्यारहवाँ-पुल्लिंग), 'एकादशी' (= ग्यारहवींस्त्रीलिंग), 'एकादशं' ( ग्यारहवाँ–नपुंसकलिंग)। पर खड़ी बोली में, अन्य शब्दों में लगनेवाले संस्कृत के 'म' के अनुकरण के अनुसार सर्वत्र 'वाँ' का ही प्रयोग किया जाता है ।
महीने की तिथियों का बोध कराने के लिये खड़ी बोली में जिन शब्दों का प्रयोग होता है उनमें से 'परीवा', 'अमावस' और
___'पूनो' को छोड़कर प्राय: सभी क्रमवाचक महीने की तिथियाँ
" संख्यावाचक शब्द हैं। पर तिथिबोधक शब्द हिंदी के साधारण क्रमवाचक संख्यावाचकों से भिन्न हैं। ये शब्द संस्कृत के तिथिबोधक शब्दों से निकले हुए हैं। संस्कृत में तिथियों का बोध क्रमवाचक शब्दों के खोलिंग के रूपों के द्वारा कराया जाता है। वास्तव में ये शब्द 'तिथि' शब्द के विशेषणों के समान प्रयुक्त हुए हैं, जैसे 'द्वितीया तिथिः', 'तृतीया तिथिः' इत्यादि। यही कारण है कि तिथिबोधक शब्द स्रोलिंग-रूप में पाए जाते हैं। पर अब 'तिथि' शब्द लुप्त हो गया है और तिथि-बोधक विशेषणों का प्रयोग संज्ञाओं के समान होता है; जैसे-द्वितीया = द्वितीया तिथि।
ऊपर कहा गया है कि 'परीवा', 'अमावस' और 'पूनो' क्रमवा. चक संख्यावाचक शब्दों से निकले हुए शब्द नहीं हैं। 'परीवा' की उत्पत्ति संस्कृत के 'प्रतिपदा' से, 'प्रमावस' की संस्कृत के
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