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खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ४१५ है, और वही हिंदी में "सर" प्रत्यय का रूप धारण कर लेता है। 'सरा' का स्त्रीलिंग में 'सरी' रूप हो जाता है। इस प्रकार स. 'द्विस्सृतः' (द्वि+सृत) > प्रा० 'दूसरिओ' या 'दूसरिया' > ख० बो० 'दूसरा'। स'. 'द्विस्मृतिका' > प्रा० दूसरिइमा' > ख. बे० 'दूसरी' (स्त्रीलिंग ), स. 'त्रिसृत' >प्रा० 'तीसरिओ' या 'तीसरिया' > ख० बो० 'तीसरा' (पुल्लिंग)। सं. 'त्रिसृतिका' > प्रा० 'तोसलिइमा' > ख० बो० 'वोसरि' ( स्त्रीलिंग)। संस्कृत के 'सृत' का अर्थ है 'चला हुआ' या 'रेंगा हुमा'।
पुरानी हिंदी के 'दूजो' या 'दूजो' तथा 'तीजो या तीजो' क्रमशः संस्कृत के 'द्वितीय' ( > प्रा० दुइजो, दुइमओ) तथा सं० 'तृतीय' (>प्रा० तइज्जओ, तइमओ) से निकले हैं। संस्कृत के 'द्वि' का प्राकृत में एक रूप 'वे' भी होता है जिसके क्रमवाचक 'विइप्रो' और 'वीम्रो' रूप बनते हैं। इसी से सिंधी का 'वीरो' या 'बिजो' तथा गुजराती का 'वीजो' बने हैं। सं० चतुर्थ > प्रा० चउत्थी > ख० बो० चौथा। पंजाबी
में 'चौथा', गुजराती में 'चोथो', सिंधी में ' 'चोथों' तथा मराठी में 'चवा' रूप पाए जाते हैं।
स० षष्ठः > प्रा० छट्टो, छट्ठो > ख० बो० छठा। खड़ी बोली का 'छठवाँ' संस्कृत के 'षषमः' के अनुकरण से बनाया गया
है, पर संस्कृत में 'पञ्चमः' और 'सप्तमः' आदि छठा
के समान 'पषमः' शब्द का प्रयोग नहीं होता। अतः यह अनुमान करना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है कि हिंदी के क्रमवाचक 'पाँचवाँ', 'सातवाँ', 'पाठवाँ' प्रादि के अनुकरण से ही उन्हीं के समान 'छठवाँ' रूप भी बना लिया गया होगा। मराठी, पंजाबी तथा सिंधी में भी इसी प्रकार के रूप बनते हैं; जैसे-मराठी
__ चौथा
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