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________________ पहला ४१४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका रूप हो गए होंगे। पर लौकिक संस्कृत में 'प्रथम' शब्द पाया जाता है जिसकी उत्पत्ति वैदिक 'प्रथ' पर 'वैदिक काल' के भी पहले के 'प्रथम' का प्रभाव पड़ने से हुई होगी। स 'प्रथम' > प्रा० 'पढमिल्ल' > 'पढइल्ल' । फिर 'ढ' के स्थान पर 'ह' होकर 'पहिल्ल' और तत्पश्चात् 'पहिला' या 'पहला' रूप हो गया है। यहाँ हम देखते हैं कि खड़ी बोली में अंतिम 'अ' दीर्घ हो गया है। अंतिम 'अ' को दीर्घ कर देने की प्रवृत्ति हम खड़ी बोली के प्राय: सभी क्रमवाचक संख्यावाचक शब्दों में पाते हैं, जैसे --दूसरा, अठारहवाँ, चौबीसवाँ, हजारवाँ, इत्यादि। यह प्रवृत्ति न तो सस्कृत में पाई जाती है ( एकादश से ऊनविंशति तक के सख्यावाचकों को छोड़कर' ) और न प्राकृत में ही; जैसे-स० पञ्चम, षष्ठ, सप्तम, विंशतितमः, पाली अट्ठारसम; प्रा० पढमिल्ल। संभवत: संस्कृत के 'एकादशा', 'द्वादशा' त्रयोदशा ( = ग्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवाँ ) आदि के अनुकरण से ही खड़ी बोली में यह प्रवृत्ति आ गई होगी। खड़ो बोली के 'दूसरा' और 'तीसरा' की उत्पत्ति सस्कृत के 'द्वितीय और तृतीय' से नहीं हुई है। ये शब्द किस प्रकार बने हैं यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मिस्टर हार्नले का अनुमान है कि ये शब्द क्रमश: संस्कृत के 'द्विसृत' और 'तिसृत' से निकले हैं। 'सृत' का प्राकृत में 'सरिओ' या 'सरिम' रूप होता (१) इससे मिलता-जुलता 'ऋतेम' शब्द अवस्ता में पाया जाता है। (२)देखिए-Origin and Development of the Bengali Language, $ 536. (३) 'द्विसर' से इसकी उत्पत्ति क्यों न मानी जाय ।-सं० । (४) देखिए-हानले का Grammar of the Gaudian Languages, $ 271. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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