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खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति
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रूप बन गया है । इया' > 'अढ़ाई' | जाने से 'ढाई' बन गया है। इसी ́ग से बनकर आए हैं।
ढतइया" और फिर 'त' के स्थान में 'अ' हो जाने से 'अड्ढइया' प्रा०- -'अड्ढअइया' > 'अडूढाइया' > 'अढाफिर 'अढ़ाई' के आदि के 'अ' का लोप हो खड़ी बोली में 'अढ़ाई' तथा 'ढाई '
៩ 'संस्कृत के 'अर्धद्वितीय' तथा 'अर्धतृतीय' का अर्थ समझना तनिक टेढ़ा सा जान पड़ता है। इसको इस प्रकार समझना चाहिए - + द्वितीय ( अर्धद्वितीय ) = आधा दूसरा अर्थात् दूसरा पूरा नहीं है, केवल आधा ही है । इस प्रकार इससे 'एक + आधा' का बोध होता है । इसी प्रकार 'अर्धतृतीय' = 'आधा तीसरा' अर्थात् दूसरा तो पूरा पूरा है पर तीसरा आधा ही है । आगे आनेवाले - 'अर्धचतुर्थ' तथा 'अर्धपंचम' का भी अर्थ इसी ढंग से समझना चाहिए ।
खड़ी बोली का 'साढ़े' प्राकृत के 'सडूढओ' से बना है और प्राकृत का 'सड्ढओ' संस्कृत के 'सार्धक ' = स+ अर्धक अर्थात् आधे के सहित । इस प्रकार हम देखते हैं कि
साढ़े
'साढ़े' का प्रयोग खड़ी बोली में ठीक उसी
अर्थ में होता है जो उसके मूल संस्कृत के शब्द का है। 'साढ़े' का प्रयोग स्वतंत्र रूप में नहीं होता; क्योंकि यह तो केवल विशेषण है, इससे किसी संख्या का बोध नहीं होता। इसलिये किसी न किसी संख्यावाचक शब्द के साथ लगाकर इसका प्रयोग किया जाता है; जैसे 'माढ़े तीन', 'साढ़े चार ' इत्यादि ।
'हूँठा' या 'उंठा' तथा 'ढ्योंचा' की उत्पत्ति भी 'डेढ़' और 'ढाई' के ही समान हुई है । सं० अर्धचतुर्थ > प्रा० अद्ध + चउट्ठ >
अशोककालीन शिलालेख में
( १ ) सहसराम में पाए जानेवाले 'श्रढतिय' रूप पाया जाता है I
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