________________
पाव
प्राधा
सवा
४१०
नागरीप्रचारिणी पत्रिका
ख० बो० पाव < अप० पाउ < प्रा० पाओ< स० पादः (= चतुर्थीश)।
ख० बो० प्राधा < अप० अद्ध < प्रा०
अढढो < सं० अर्ध, अर्धक । ख० बो० पान < प्रा० पाओणी, पान < सं० पादोन (पाद +
ऊन )= चतुर्थांश कम। इसी 'पौन' से पौन
" 'पौने' बना है जिसका प्रयोग ( संख्याओं के पहले लगाकर ) विशेषण के समान होता है।
ख० बो० सवा< अप० सवाउ< प्रा.
सवाओ< सं० सपाद (स+पाद )=चतुर्थांश सहित ।
'डेढ़' और 'ढाई' आदि की व्युत्पत्ति कुछ विचित्र है। संस्कृत के शब्दों के पूर्व 'अर्ध' का योग करके इन शब्दों के मूल शब्दों की
रचना हुई है; जैसे-'अर्ध + द्वितीय' >मागधी
प्रा० 'अड्ढदुइए', 'अडदिवइए'। 'अड्ढदुवए' से वर्ण-विपर्यय होकर 'दुइअड्ढए' और फिर 'दिवडढे' बन गया जिसका प्रयोग भोजपुरी में अब भी होता है। कुछ विद्वानों का मत यह भी है कि स द्वार्ध' से ही प्राकृत में 'दिवडूढ' या 'दिपढ' बन गया होगा। प्राकृत के 'दिवढे' या 'दिपढ' से ही खड़ी बोली का 'डेढ़', मराठी का 'दोड', गुजराती का 'डोढ' तथा पंजाबी का 'डेउढा' या 'डूढा' बने हैं। ____ सं० अर्ध + तृतीया=अर्धतृतीया। प्राकृत में 'अ' का 'प्रड्ढ' तथा 'तृतीया' का 'तइज्जा' हो गया। इस प्रकार प्राकृत
में 'प्रड्ढ' + 'प्राइज्जा' = 'अड्ढाइग्जा' बन
गया है। प्राकृत में सं० 'तृतीया' का एक और रूप 'तइया' भी होता है जिसमें 'अड्ढ' के योग से 'अड्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com