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________________ खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ४०३ शब्दों में पाया जाता है; जैसे—बँगला ‘इकान( ब )इ', मराठी 'इक्याण्णव' (=६१), गुजराती 'नयाD' (=६८)। सं० द्वानवति > प्रा० वाणउइ > अप० बानवे > ख० बो० बानबे। सं० योनवति, त्रिनवति , प्रा० तेणउइ > अप० त्राणु > ख० बो० तिरानबे। 'तिरानबे' में वर्तमान 'र', संस्कृत के 'त्र' से ही आया है। 'त्रि' का 'तिर' के समान उच्चारण करने की प्रवृत्ति अब भी जन-साधारण में हम देखते हैं; जैसे-'त्रिशुल' का 'तिरशूल' । सं० चतुर्नवति > प्रा० चउणउइ > अप० चौरानवे > ख० बो० चौरानबे। इस शब्द का 'र' भी संस्कृत के ही 'र' से पाया है। सं० पंचनवति > प्रा० पंचाणउइ > अप० पंचानवे > ख० बो० पंचानबे । प्राचीन राजस्थानी में 'पंचाणु' रूप पाया जाता है। सं० षण्णवति >प्रा० छण्णउइ > अप० छाँणवे > ख० बो० छानबे, छियानबे। प्राचीन राजस्थानी में 'छाणु' रूप होता है। सं० सप्तनवति > प्रा० सत्तण उइ > अप० सत्तानवे > ख० बो० सत्तानबे । सं० अष्टनवति, अष्टानवति > प्रा० अट्ठाण उइ > अप० अट्ठानवे > ख० बो० अट्ठानबे। प्राचीन राजस्थानी में 'अट्ठाणुं' और 'अट्ठाणूं' रूप होते हैं। सं० नवनवति > प्रा० नवाणव्वई, नवनउइ > अप० नवाणवे > ख० बो० निनानवे। प्राचीन राजस्थानी में 'नवाणुं', सिंधी में 'नवानवे, मराठी में 'नव्याण्णव' तथा बंगला में 'निवानव्वई' रूप पाए जाते हैं। प्राकृत शब्द के प्रथम 'व' के स्थान पर खड़ी बोली में 'न' हो गया है; अथवा यह 'न' पंजाबी 'नडिनव्वे' या 'नडिन्न' में के' के स्थान पर आ गया होगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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