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नागरीप्रचारिणी पत्रिका त्रिंशत्, चत्वारिंशत्, पञ्चाशत्, षष्टि, सप्तति तथा अशीति के ठोक पहलेवाले शब्द, इन शब्दों के पूर्व 'ऊन' का प्रयोग करके बनाए गए हैं; जैसे--'ऊनविंशति', 'उनत्रिंशत्' इत्यादि। पर 'नवाशीति' 'नव' और 'अशीति' के योग से बना है। 'ऊन' और 'नवति' के योग से बने हुए 'ऊननवति' का प्रयोग संस्कृत में बहुत कम पाया जाता है। आगे हम देखेंगे कि 'नवाशीति' के समान संस्कृत का 'नवनवति' (= €€) भी बना है। इन्हीं दो शब्दों से उत्पन्न होने के कारण 'नवासी' और 'निन्नानबे', 'उन्नीस,' 'उतीस', 'उंतालीस' आदि के समान 'उन'-युक्त नहीं पाए जाते हैं।
सं० नवति > प्रा० नउए > अप० ण उइ। खड़ी बोली में 'नब्बे'; उड़िया में 'नबे, बँगला में 'नब्बइ', मराठी में 'नव्वद', सिंधी में 'नवे', पंजाबी में 'नव्वे, नब्बे' रूप मिलते हैं। विद्वानों का अनुमान है कि इन सब शब्दों के मूल में प्राकृत का 'नव्वए' शब्द रहा होगा।
सं० एकनवति > प्रा० एकाणबई > अप० एकानवे >ख० बो० इक्यानबे। यहाँ हम देखते हैं कि 'आ' हो गया है। 'म' का इस प्रकार दीर्घ हो जाना 'नब्बे' के योग से बने हुए सभी शब्दों (इक्यानबे, बानबे, विरानबे आदि ) में देखा जाता है। डाक्टर सुनीतिकुमार चैटर्जी ने इसका कारण 'इक्यासी'< सं० 'एकाशीति', 'पचासी' < सं० 'पंचाशीति' तथा 'सत्तासी' < सं० 'सप्ताशोति' का अनुकरण बतलाया है। पर वास्तव में यह अनुकरण नवें दशक के शब्दों का नहीं है, वरन् दसवें दशक में ही पाए जानेवाले 'बानवे' तथा 'अट्ठानवे' का है जिनमें संस्कृत के क्रमश: 'द्वानवति' तथा 'भ्रष्टानवति' से ही 'मा' आ गया है । 'अ' का इस प्रकार दीर्घ हो जाना प्राधुनिककालीन प्रायः सभी भारतीय मार्य-भाषाओं के
(१) देखिए-S. K. Chatterji, $530.
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