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नागरी प्रचारिणी पत्रिका
सं० सप्तति > प्रा० सत्तरी, सत्तरि > अप० सत्तरि >
बो० सत्तर ।
सं० एकसप्तति > प्रा० एक्कसत्तरि > अप० इकोतरै । खड़ी बोली में प्राकृत से मिलता-जुलता 'इकहत्तर' रूप पाया जाता है जिसका बोलचाल में प्रायः 'इखत्तर' के समान उच्चारण होता है । इसका कारण यही है कि जल्दी में 'क' के पश्चात् 'ह' का उच्चारण करने से दोनों मिलकर 'ख' के समान प्रतीत होते हैं ।
अप० बहुतरि,
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ख०
सं० द्विसप्तति, द्वासप्तति > प्रा० वासन्त्तरि > बेहतर, बहुतरि, बहतरि, बहत्तर > ख० बो० बहत्तर । प्रा० तेसत्तरि > अप० तेवत्तरि
सं० त्रयःसप्तति, त्रिसप्तति
> ख० बो० तिहत्तर ।
सं० चतुरसप्तति > प्रा० चोसत्तरि > अप० चैावत्तरि > ख० बो० चौहत्तर |
सं० पञ्चसप्तति > प्रा० पंचसत्तरि > अप पंचत्तरि > बो० पचहत्तर, जो बोलचाल में प्राय: 'पछत्तर' हो जाता है । इसका कारण 'च' और 'ह' का मिलकर 'छ' हो जाना है ।
सं० षट्सप्तति > प्रा० छासत्तरि > अप० छावत्तरि > ख० बो० छिहत्तर, छियत्तर ।
सं० सप्तसप्तति > प्रा० सत्तसत्तरि > अप० सत्तत्तरि ख० बो० सतत्तर, सतहत्तर ।
सं० अष्टासप्तति, अष्टसप्तति > प्रा० अट्ठसत्तरि प्रठोवर, अट्ठोत्तर > ख० बो० अठत्तर । सं० एकोनाशीति, ऊनाशीति उगुणासी > ख० बो० उनासी ।
प्रा० एगुणसीइ > अप० राजस्थानी में गुण्यासी तथा
मेवाड़ी में गुणियाशी रूप होते हैं जो प्राकृत के एगुणसीइ से
मिलते-जुलते हैं ।
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> अप०
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