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खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ३६७ विशाल ग्रंथ के लेखक मिस्टर केलाग का भी मत यही है कि यह 'ए संस्कृत के 'त्रिपञ्चाशत्' के 'र' का अवशेष है। इसी प्रकार का 'र' 'तिरसठ', 'तिरासी', 'चौरासी' तथा 'तिरानवे' आदि में भी पाया जाता है, जो इन शब्दों में क्रमशः संस्कृत के 'त्रिषष्टि', 'अशीति'. 'चतुरअशीति' तथा 'त्रिनवति' से आया है। अत: 'त्रिप्पण्णं' की कल्पना निराधार नहीं जान पड़ती। इसी 'त्रिप्पण्णं' से ही खड़ी बोली का 'तिरपन' बना होगा जिसके लिये कुछ लोग 'बेपन' भी बोलते हैं। ____ सं० चतुःपञ्चाशत् > प्रा० चउप्पण्ण, अर्धमा० प्रा० चउ. वण्ण > अप० चोपन > ख० बो० चौवन । राजस्थानी और मेवाड़ी में अपभ्रंश के समान 'चोपन' रूप मिलता है।
सं० पञ्चपञ्चाशत् > प्रा० पंचावण्णा > अर्धमा० प्रा० पणपण्ण, पणवण्णा तथा पणवन्नं। अपभ्रंश में 'पचवन' रूप पाया जाता है जिससे मेवाड़ी का 'पचाँवन' तथा राजस्थानी का 'पचावन' बने हैं। खड़ी बोली का 'पचपन' प्राकृत के 'पञ्चपण्ण' के आधार पर बना होगा। अपभ्रंश के पचवन' से निकले हुए 'पंचावन' का प्रयोग अब भी पूर्वी हिंदी में होता है।
सं० षट्पञ्चाशत् > प्रा० छप्पण्णा - अप० छप्पन > ख० बो० छप्पन ।
सं० सप्तपञ्चाशत् > प्रा० सत्तावण्णा, सत्तावण्ण > अप० सत्तावन > ख० बो० सत्तावन ।
सं० अष्टपञ्चाशत्, अष्टापञ्चाशत् > प्रा० अट्ठवण्णं, अर्धमा० प्रा० आट्ठवण्ण > अप० अट्ठावन > ख० बो० अट्ठावन ।
(१) देखिए-केलाग Language, 8 248.
की
Grammar of the Hindi
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