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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सं० एकपञ्चाशत् >प्रा० एकावण्णं, एक्कावण्ण > अप० एकावन > ख० बो० इक्यावन । यहाँ हम देखते हैं कि पञ्चाशत् > प्रा० पण्णासा, पंचास के स्थान में खड़ी बोली में केवल 'वन' रह गया है (इक्यावन = इक्या > एक+ वन)। 'पञ्चाशत्' का यह रूपपरिवर्तन प्राकृत-काल में ही हो गया था जो 'एक्कावण्ण', 'बावपण', 'पणपण्ण' तथा 'छप्पणं आदि रूपों में पाया जाता है। यौगिक संख्यावाचक शब्दों में हिंदी में संस्कृत के 'पंचाशत्' के स्थान पर 'वन' ( इक्यावन, बावन इत्यादि ) तथा 'पन' ( तिरपन, पचपन इत्यादि ) दो रूप पाए जाते हैं। आगे दी हुई इन शब्दों की व्युत्पत्ति के प्रसंग में हम देखेंगे कि प्राकृत के जिन शब्दों में 'वण्ण' हुआ है, उनमें हिंदी में 'वन' हो गया है।
सं० द्विपञ्चाशत, द्वापञ्चाशत् > प्रा० बावण्णं, अर्धमागधी प्रा० बावण्ण > अप० बावन > ख० बो० बावन ।
सं० त्रिपञ्चाशत, त्रयःपञ्चाशत् > प्रा० तेवण्ण, अर्धमा० प्रा० तेवण्ण > अप० त्रेपन । प्राकृत के इन्हीं शब्दों से राजस्थानी का 'वेपन' बना है। पर भारतवर्ष की प्राय: अन्य सभी आर्य-भाषाओं में 'तिरपन' के वाचक शब्दों में 'ए पाया जाता है। राजस्थानी में भी दूसरा रूप 'तरेपन' होता है जिसमें 'र' विद्यमान है। कुछ अन्य भाषाओं के शब्द ये हैं-पूर्वी हिंदी 'तिरपन'; गुजराती 'नेपन'; मराठी 'बेपन'। बीम्स महाशय का मत है कि यह 'र' केवल उच्चारण में धोरे धीरे आ गया है, मूल शब्द प्राकृत का 'तेवण्ण' ही है। पर मिस्टर हार्नले का मत इसके विपरीत है । उनका कहना है कि इन शब्दों के बनने से पहले अपभ्रंश में 'त्रिप्पण्णं' शब्द अवश्य रहा होगा। हिंदी भाषा के व्याकरण पर एक
(.) देखिए-हानले की Grammar of the Ganudian Languages, पृ० २५६, ६. 397.
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