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खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति
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सं० सप्तचत्वारिंशत् > अर्धमा० प्रा० सायालीस, सत्तचत्तालीस, साचालीस, प्रा० सत्तचत्तालीसा > ग्रप० सततालीस > ख० बो० सैंतालीस
सं० अष्टाचत्वारिंशत्, अष्टचत्वारिंशत् > अर्धमा० प्रा० श्रढ़याल, अढ़यालीस, अट्ठचत्तालीस, प्रा० अट्ठचत्तालीसा > अप० अट्ठतालीस > ख० बो० अड़तालीस |
सं० एकोनपञ्चाशत्, ऊनपञ्चाशत् इत्यादि > अर्धमा० प्रा० एगूणपण्यास, उणपण > प्रा० ऊणपंचासा > अप० उगुणपचास । प्राकृत के 'ऊण पंचासा ' से 'प' के लुप्त हो जाने से खड़ी बोली तथा पूर्वी हिंदी के 'उनचास' और 'ओनचास' आदि शब्द बने हैं 1 यह 'प' का लोप वैसा ही है जैसा हम 'उंतालीस' में 'च' का देख चुके हैं। बँगला के 'उनपंचास' में गुजराती के 'ओगणपचास', पंजाबी के 'उवंजा' या 'उगंजा' में प्राकृत का 'पंचासा' रूप, पूर्ण या संक्षिप्त रूप में वर्तमान है। पंजाबी और सिंधो में तो 'पचास' के योग से बने हुए प्रायः सभी शब्दों में 'पंचासा' का आभास पाया जाता है; जैसे— पंजाबा 'विरंजा तिरवंजा' सिधी 'ट्रेवजाह' ( = ५३ ) ; पंजाबी 'चेवंजा, चुवंजा', सिंधी 'चावंजाह' ( = ५४ ); पंजाबी 'पंजवंजा', सिधी 'पंचवंजाह' ( = ५५ ) ; पंजाबी 'छिपंजा, छिवंजा', सिंधी 'छवंजाह' ( = ५६ ), इत्यादि ।
सं० पञ्चाशत > प्रा० पण्णासा, पंचास > अप० पचास > ख० बो० पचास |
(१) प्राकृत में यों तो पचास के लिये प्रायः संस्कृत के 'पञ्चाशत्' से बने हुए 'पण्णासा' ( देखिए — वररुचि-कृत प्राकृतप्रकाश, अध्याय ३ ४४व सूत्र ) का ही प्रयोग होता है, पर उसमें दूसरा रूप 'पंचास' भी पाया जाता है । इसी 'पंचास' में 'ऊन' के योग से 'ऊणपंचासा' और 'ऊणवचासा' बन गए हैं ।
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