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नागरीप्रचारिणी पत्रिका __ सं० चतुस्त्रिंशत् > अर्धमा० प्रा० चौत्तीस, प्रा० चात्तीसा > प्रप० चौत्रिस, चौतीस > ख० बो० चौतीस, पैतिस ।
सं० पञ्चत्रिंशत् > अमा० प्रा० पणतीस, प्रा० पंचवीसा, पणतीसा > अप० पणत्रिस, पाँत्रिस, पैौतिस, पैंतिस > ख० बो० पैंतीस, पैंतिस। पंजाबी और राजस्थानी में 'पैंती' तथा गुजराती में 'त्रिश' रूप होते हैं। ___ सं० षट्त्रिंशत् > अर्धमा० प्रा० छत्रीस, प्रा० छत्तीसा, अप० छत्रिस, षटत्रीस > ख० बो० छत्तीस ।
सं. सप्तत्रिंशत् > प्रा० सत्ततीसा > अप० सत्ततीस > ख० बो० सैंतीस। यहाँ खड़ी बोली में अनुस्वार का आगम हो जाना ध्यान देने के योग्य है। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश किसी में अनुस्वार नहीं है, फिर यह हिंदी में कहाँ से आ गया ? तैतीस, चैांतीस, सैंतीस, तेंतालीस, सैंतालीस, चौसठ और छाँछठ में भी इसी प्रकार अनुस्वार का पागम हो गया है। __संभवतः यह पैंतीस, पैंतालीस तथा पैंसठ आदि ( जिनमें संस्कृत के 'म्' के कारण हिंदी में अनुनासिक उच्चारण हो गया है) के अनुकरण का फल है। ____ सं० अष्टात्रिंशत् > अर्धमा० प्राकृत अट्ठत्तीस, अद्वतीस, प्रा० अद्वतीस > अप० अठत्रीस > ख० बो० अड़तीस ।
सं० ऊनचत्वारिंशत्, एकोनचत्वारिंशत् इत्यादि > अधमा० प्रा० उनचालिस, एगूणचत्तालीस, प्रा० अउणचतालीसा > अप० एगुण चालीस; ख० बो० उतालीस; राजस्थानी गुणतालीम, मेवाड़ी गुंणचालीस, गुणतालीस तथा गुण्यालीश ।
(१) 8. K. Chatterji, O. and D. of the Bengali Language. 8613.
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