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खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ३८६ सं० षोडश > प्रा० सोलह, अर्धमागधो प्रा० सोलस; अप० सोलह > खड़ी बोली सोलह ।
सं० सप्तदश > प्रा० सत्तरह > अप० सत्तरह > ख० बो० सत्रह । पूर्वी हिंदी में 'सवरह' रूप मिलता है।
सं० अष्टादश > प्रा० अट्ठारह > अप० अट्ठारह > ख०बो०अट्ठारह ।
हम देखते हैं कि चौदह और सोलह के अतिरिक्त, ग्यारह से अट्ठारह तक के संख्यावाचक शब्दों के 'द' का प्राकृत तथा अपभ्रंश में 'र' हो गया है। खड़ी बोली में भी वही परंपरा वर्तमान है। सं० 'चतुर्दश' में 'द' के पूर्व 'र' पहले से ही वर्तमान है जिसके कारण प्राकृत में 'द' के स्थान पर 'र' नहीं हो सका। सं० 'षोडश' के 'ड' के स्थान पर प्राकृत और अपभ्रंश में 'ल' पाया जाता है। खड़ी बोली में भी यही 'ल' वर्तमान है । पूर्वी हिंदी, मागधी तथा मैथिली में 'सोरह' पाया जाता है जिसमें संस्कृत के 'ड' के स्थान पर 'र' है। संभवत: इन भाषाओं में 'ग्यारह', 'बारह', 'तेरह'
आदि के अनुकरण पर 'सोरह' रूप भी बन गया होगा। ___ उन्नीस, उंतीस, उतालीस, उनचास, उनसठ, उनहत्तर तथा उन्नासी अन्य संख्यावाचक शब्दों से भिन्न दूसरे ही ढंग से बनाए गए हैं। इनके बादवाले शब्दों के पहले 'ऊन' (=कम ) लगाकर इन शब्दों की रचना की गई है; जैसे-एक+ऊन + विंशति (= एक कम बीस ) से 'एकोनविंशति'। फिर आदि के 'एक' का लोप हो जाने से एक दूसरा रूप 'ऊनविंशति' बन गया। जैसा हम आगे देखेंगे, संस्कृत के इसी 'ऊनविंशति' से खड़ी बोली का 'उन्नीस' निकला है । इस ढंग से बनाए हुए अन्य शब्दों का उल्लेख यथास्थान प्रागे किया जायगा । (१) एगुणविंस संस्कृत के एकोनविंशति से सहज ही में बन जाता है।
-संपादक।
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