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खर्व
खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ३८७ प्रयुत कोटि
जलधि अर्बुद
अंत्य अब्ज
मध्य
पराध महापद्म शेष सब यौगिक शब्द हैं जो इन्हीं शब्दों की सहायता से बने हैं; जैसे-~'एकादशन्' (= एक + दशन); 'द्वादशन्' (= द्व+दशन्), 'एकविंशति' ( =एक+विंशति ), 'चतुःपञ्चाशदुत्तरं सप्तशतम्' (=चतुर्+पञ्चाशत् + सप्त+शत) इत्यादि। संस्कृत के शब्द प्राकृत और अपभ्रश से होते हुए किस प्रकार खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों के रूप में परिणत हो गए हैं यही मागे दिखाया जायगा।
सं० एकादश > प्रा० एगारह, एकारस, एप्रारह > अप० एगारह । खड़ी बोली में वर्ण-विपर्यय होकर अपभ्रंश के 'एग्गारह' से 'गएप्रारह' और फिर उससे 'ग्यारह' या 'ग्यारा' हो गया है अथवा 'एग्गारह' के आदि के 'ए' और 'ग' का लोप होकर 'ग'
और 'अ' के बीच में 'य' का प्रागम हो जाने से 'ग्यारह' बन गया है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । पूर्वी हिंदी में 'इगारह', 'एग्यारह' और 'इग्यारह' अब भी बराबर प्रयुक्त होते हैं जिनके
आदि के स्वर का नाश नहीं हुमा है। इस संख्यावाचक शब्द में हम यह भी देखते हैं कि संस्कृत के 'श' के स्थान में हिंदी में 'ह' हो गया है। संख्यावाचक शब्दों के द्वितीय और अष्टम दशकों ( अर्थात् दस से बीस तक और सत्तर से अस्सी तक ) में संस्कृत के 'श' और 'स' के स्थान में गुजराती, खड़ी बोली, ब्रजभाषा, अवधी, बिहारी तथा बँगला भाषाओं में नियमत: 'ह' पाया जाता है; पर
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