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नागरीप्रचारिणी पत्रिका और प्राकृत के 'चत्तारि' के 'त' का हिंदी में लोप हो जाने का कारण बताना कठिन है। जैसा हमने अभी देखा है कि यह लोप अपभ्रशों के ही समय में हो चुका था। संभवत: चौदह, चौबीस, चौतीस आदि यौगिक शब्दों में 'चा' ( < सं० चतुः) को देखकर 'चत्तारि' से भी बोलचाल में 'त्त' का लोप हो गया होगा और इस प्रकार अपभ्रंशकालीन 'चारि' बन गया होगा। सं० पुंल्लिंग 'चत्वारः' से निकला हुआ प्राकृत में एक रूप 'चत्तोरा' भी पाया जाता है, पर इससे मिलता-जुलता शब्द हिंदी में नहीं दिखाई देता। हाँ, प्राकृत के 'चउरो' ( < सं० पुल्लिंग कर्मकारक 'चतुरः' ) से निकला हुआ 'चौ' शब्द कन्नौजी में पाया जाता है।
संस्कृत के 'पञ्च' से प्राकृत तथा अपभ्रंश का 'पंच' बना है और उसी से खड़ी बोली का 'पाँच' बना है।
खड़ी बोली के 'छ:' के लिये संस्कृत में 'षट्' का प्रयोग होता है। प्राकृत में '' रूप पाया जाता है। प्राचीनकालीन 'षट' के 'ष' के स्थान में मध्यकाल में 'छ' हो जाना तत्कालीन उच्चारण की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है। संस्कृत के 'ष' या 'श' का प्राकृत में 'स' ही होना देखा जाता है, जैसे सं० षोडश > प्रा० सोलह, सं० षष्टि > प्रा० सहि। इस संबंध में डा० सुनीतिकुमार चटर्जी का अनुमान है कि मध्यकाल में भारतवर्ष के पश्चिम में बोली
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(१) " The apparent loss of <-tt -> in these later forms is not easy to explain. The loss of the s tt > may have been due to tbe form taken by this numeral word in compounds-cau < catuh " s. K. Chatterji-Origin and Development of the Bengali Language. § 515
(२) cf. ibid (S. K. Chatterji ) $ 617.
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