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खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ३८३ खड़ी बोली का 'एक' बना है। प्राकृत के 'एगो' का प्रयोग अब भी भोजपुरी में होता है और इसी 'एगा' के अनुसरण पर उसमें 'दुइगो', 'तिनिगो', 'चारिगो', 'पाँचगो' आदि शब्द बन गए हैं। __ संस्कृत के 'द्व' और 'द्वि' से प्राकृत में 'दुए','दुवे','दो', 'दोन्नि' तथा 'बे' बनते हैं। प्राकृत के 'दो' और 'बे' के समान ही अपभ्रंश में 'बे' और 'दो' का प्रयोग होता है। अपभ्रंश में एक रूप 'विण्णि ' भी पाया जाता है जो संस्कृत के 'द्वेणि' से निकला हुआ जान पड़ता है। खड़ी बोली का 'दो' अपभ्रंश के 'दो' से आया है। प्राकृत के 'दुए' और 'दुवे' से पूर्वी हिंदी, बँगला और उड़िया का 'दुई', 'दोनि' से मराठी का 'दोन्' और सिंधी का 'हूं', 'बे' से गुजराती का 'बे' तथा सिंधी का 'ब' निकले हैं। खड़ी बोली के 'दोनो' शब्द का मूल प्राकृत का 'दोन्’ ही जान पड़ता है।
संस्कृत 'त्रि' के नपुंसक लिंग 'त्रीणि' से प्राकृत में 'तिण्ण तथा अपभ्रंश में 'तिण्णि' बने हैं । __इसी 'तिण्णि' या 'तिण्ण' से खड़ी बोली के 'तीन' तथा पूर्वी हिंदी के 'तिनि' की उत्पत्ति हुई है। संस्कृत के पुंलिंग रूप 'त्रयः' से मागधी प्राकृत 'तो' रूप बना है, पर हिंदी में 'तो' से निकला हुआ कोई रूप देखने में नहीं पाता है।
सं० नपुंसकलिंग ‘चत्वारि' से प्राकृत में 'चारि' और 'चत्तारि' बने हैं। अपभ्रंश में 'चारि। पाया जाता है जिससे खड़ी बोलो का 'चार' तथा पूर्वी हिंदी का 'चारि' बने हैं। पाली के 'चत्वारो'
(१) प्राकृतकालीन भाषाओं में 'तिण्ण' के अनेक रूप पाए जाते हैं। इसका प्रमाण अशोक के शिलालेखों से मिलता है। धौली तथा जौगाढ़ के शिलालेखों में "तिविपानानि", कालसी के शिलालेख में "तीनि. पानानि", गिरनार के शिलालेख में "त्रिप्राण" और सहबाजगढ़ी के शिलालेख में "त्र (यो)त्रण" और "त्रण-त्रयो" रूप पाए जाते हैं।
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