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________________ खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ३८१ विंशतिश्च' कह सकते हैं। प्राकृतों में संस्कृत के अनुसार तथा उसके विपरीत, दोनों प्रकार के प्रयोग पाए जाते हैं। अ. मागधी प्राकृत के निम्नलिखित उदाहरणों में कोई भी सहायक शब्द नहीं है___'अट्ठसय' ( एक सौ आठ ), 'अट्ठ सहस्स' (एक हजार आठ), 'सत्तरस इकबीसे जोयणसए' ( सत्रह सौ इकोस योजन)। पर उसी प्राकृत के 'तीसं च सहस्साई, दोण्णि य अउणापण्णे जोयण सए' ( तीस हजार दो सौ उनचास योजन ) में 'च' की सहायता ली गई है। 'उत्तर' की सहायता से बने हुए सौ और दो सौ के बीच के अनेक संस्कृत-शब्दों के 'तद्भव' रूप खड़ी बोली में अब भी प्रयुक्त होते हैं, पर उन रूपों का प्रयोग केवल संख्याओं के पहाड़े। में ही रह गया है, जैसे-'दियोतरसो' या 'दिलोतरसो' (= १०२), 'चलोतरसो' (= १०४), 'पंजोतर' या 'पिचोतरसो' (=१०५), 'छिलोतरसो' (= १०६) इत्यादि । संस्कृत के 'द्वयु त्तरशवम्' से ही बिगड़ते बिगड़ते 'दियोतरसो' रूप बन गया है। सं० 'चतुरुत्तरशतम्' >प्रा० चुलोत्तररुग्रं >ख० बो० चलोतरसो; सं० 'पञ्चोतरशतम्' >प्रा० पंचुत्तलसयं > अप० पंचोत्तरसउ > ख० बो० पंजोतरसो या पिचोसरसो; सं. 'षडुत्तरशतम्' > प्रा० छलुत्तसयं > अप० छलोत्तरसठ > ख० बो० छलोत्तरसो या लिलोतरसो। हिंदी से 'अधिक', 'उत्तर' तथा 'च' के प्रयोग के उठ जाने का कारण प्राकतों का ही प्रभाव है। हिंदी के काव्यो में संस्कृत की परंपरा के अनुसार किया हुआ इन शब्दों का प्रयोग अब भी कहीं कहीं देखने में आ जाता है। सौ के ऊपर के शब्दों की रचना में कुछ लोग 'सौ' के लिये 'सै' का प्रयोग करते हैं;-जैसे 'दो सो चार' या 'दो सै चार। 'सौ' या 'सै दोनों ही संस्कृत के 'शत' से निकले हैं जिसके प्राकृत में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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