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नागरीप्रचारिणो पत्रिका जयदेव और नामदेव के संबंध में कबीर की यह भावना मालूम पड़ती थी कि वे भक्त तो अच्छे थे पर अभी ज्ञानी की श्रेणी में नहीं पहुँच पाए थे--
सनक सनंदन जैदेव नामा, भगति करी मन उनहुँ न जाना।
अतएव निर्गुण संप्रदाय के प्रसारकों का परिचय देने के पहले इन लोगों का भी परिचय दे देना आवश्यक जान पड़ता है।
इन सब में समय की दृष्टि से जयदेव सब से प्राचीन जान पड़ते हैं; क्योंकि गीतगोविंद-कार को छोड़कर और दूसरा कोई
संत ऐसा नहीं जान पड़ता है जिसके संबंध २. जयदेव
में कबीर के जयदेव-संबंधी उल्लेख ठोक बैठ सकें। ये राजा लक्ष्मणसेन की सभा के पंच-रत्नों में से एक थे, जिनका राजत्वकाल सन् ११७० से प्रारंभ होता है। कहा जाता है कि जयदेव पहले रमते साधु थे, माया-ममता के भय से किसी पेड़ के तले भी एक दिन से अधिक वास न करते थे। किंतु पोछे मगवान की प्रेरणा से पद्मावती नाम की एक ब्राह्मण-कुमारी से इनका विवाह हो गया। इनके जीवन में कई चमत्कारों का उल्लेख किया जाता है जिनके लिये यहाँ पर स्थान नहीं है। इन्होंने रसना-राघव, गीत-गोविंद और चंद्रालोक ये तीन ग्रंथ लिखे। गीतगोविंद की तो सारा संसार मुक्त कंठ से प्रशंसा करता है। इसमें भी निर्गुण पंथियों के अनुसार जयदेव ने अन्योक्ति के रूप में ज्ञान कहा है। गोपियाँ पंचेंद्रियाँ हैं और राधा दिव्य ज्ञान । गोपियों को छोड़कर कृष्ण का राधा से प्रेम करना यही जीव की मुक्ति है। परंतु इस तरह इसका अर्थ बैठाना जयदेव का उद्देश्य था या नहीं, नहीं कहा जा सकता।
(१)क० ग्रं॰, पृ० १६, ३३ ।
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