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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय
दूसरा अध्याय
निर्गुण-संत संप्रदाय के प्रसारक
निर्गुण-संत- विचारधारा को कबीर के द्वारा पूर्णता प्राप्त हुई, परंतु रूपाकार तो यह पहले ही से ग्रहण करने लग गई थी। सूफी मत के दांपत्य प्रतीक को छोड़कर ऐसी कोई १. परवर्ती संत बात न थी जिसने पहले ही कुछ न कुछ आकार न ग्रहण कर लिया हो । दार्शनिक सिद्धांतों तथा साधनामार्ग के संबंध में जिस प्रकार की बातें कबीर ने कही हैं, प्राय: उसी प्रकार की बातें कबीर के कतिपय गुरु-भाइयों ने भी कही हैं। स्वयं उनके गुरु रामानंद की जो कविता मिलती है उसमें भी उसका काफी रूप दिखाई देता है। चौथे सिख गुरु अर्जुनदेव ने सं० १६६१ में जिस आदि ग्रंथ का संग्रह कराया, उसमें स्वामी रामानंद और उनके इन सब शिष्यों की कविताएँ भी संगृहीत हैं, जिससे स्पष्ट है कि निर्गुण-संत संप्रदाय में भी ये लोग बाहरी नहीं समझे जाते थे । इनके अतिरिक्त कुछ अन्य संतों की कविता का भी आदि ग्रंथ में संग्रह किया गया है जो उपर्युक्त संतों के समकालीन अथवा परवर्ती थे। ये हैं त्रिलोचन, नामदेव और जयदेव जिनमें से अंतिम दो का नाम कबीर ने बार बार लिया है
जागे सुक उधव अकूर, हणवंत जागे लै लंगूर ।
संकर जागे चरन सेव, कलि जागे नाम जैदेव ' ॥
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आदि ग्रंथ में भी कबीर साहब ने जयदेव और नामा को भक्तों की श्रेणी में सुदामा के समकक्ष माना है
जयदेव नामा, विप्प सुदामा तिनको कृपा श्रपार भई है
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(१) क० ग्रं०, पृ० २१६, ३८७ ।
२ ) वही, पृ० २६७, ११३ ।
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