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खड़ी बोलो के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ३७१ राजस्थानी के अंतर्गत जयपुरी, जोधपुरी, मेवाड़ी और मारवाड़ी आदि बोलियाँ, पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत बुंदेली, कन्नौजी, ब्रजभाषा, बाँगड़ और खड़ी बोली तथा पूर्वी हिदी के अंतर्गत अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी हैं।
प्राकृतो और अपभ्रंशों आदि का वर्णन यहाँ अप्रासंगिक सा जान पड़ता है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। हिंदी की भिन्न भिन्न
शाखाओं में जो भेद देखे जाते हैं तथा हिंदी
में शब्दों के जो रूप और प्रयोग पाए जाते हैं अन्य प्राकृतों का प्रभाव उनको समझने के लिये यह वर्णन नितांत
आवश्यक है। खड़ी बोली मेरठ और दिल्ली के प्रांतों में तथा उनके पासपास बोली जानेवाली बोली का नाम है। ऊपर के वर्णन से प्रकट होता है कि पहले उस स्थान में शौरसेनी प्राकृत और फिर शौरसेनी अपभ्रंश का व्यवहार होता था। यही कारण है कि खड़ी बोली में शब्दों के रूप प्रायः शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी अपभ्रंश के अनुसार मिलते हैं। इसी प्रकार बिहारी का मागधी प्राकृत और मागध अपभ्रंश से तथा पूर्वी हिदी का अर्द्धमागधी प्राकृत और अर्द्धमागधी अपभ्रंश से विशेष संबंध है। पर इससे यह न समझना चाहिए कि ये बोलियाँ अपने आसपास की बोलियों से बिलकुल भिन्न हैं। पड़ोस में रहनेवाले मनुष्यों का संपर्क बराबर होता ही रहता है और इस प्रकार पड़ोस में बोली जानेवाली 'बोलियाँ परस्पर एक दूसरी पर अपना प्रभाव डालती रहती हैं। इसके उदाहरण खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति के वर्णन में आगे मिलेंगे। हम देखेंगे कि खड़ी बोली के बहुत से संख्यावाचक शब्दों के रूप अर्द्धमागधी प्राकृत के शब्दों से कितना अधिक मिलते हैं, यद्यपि खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत से हुई है।
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