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खड़ी बोली के संख्यावाचक शब्दों की उत्पत्ति ३६६ परिवर्तन होने लगा, जिससे उसके अनेक भेद हो गए होंगे। वेदों के भिन्न भिन्न छंदों से भी यही प्रकट होता है कि वे सब एक ही बोली में नहीं हैं। अत: एक सार्वदेशिक भाषा की आवश्यकता समझी गई, और उस समय की बोलियों के शिष्ट, प्रसिद्ध तथा उपयोगी प्रयोगों को लेकर एक नियम-बद्ध भाषा बनाई गई, जिसका नाम पीछे से 'संस्कृत' भाषा हो गया। यही समस्त भारत-भूमि की साहित्यिक भाषा हुई। शिक्षित, सभ्य और पंडित लोग बोलचाल में भी इसी भाषा का व्यवहार करते थे, पर अपढ़ और गँवारों की भाषा दूसरी ही थी। संस्कृत भाषा के शब्दों का शुद्ध उचारण उनसे नहीं करते बनता था। वे जो भाषा बोलते थे उसमें संस्कृत के प्रशुद्धोच्चारित तथा संस्कृत के पहले की बोलियों के शब्द थे। वे लोग कुछ ऐसे शब्दों का भी व्यवहार करते थे जो उन असभ्य जातियों की बोलियों से आ गए थे, जो पार्यों के भारतवर्ष में प्राने से पहले यहाँ रहती थीं। इस दूसरी भाषा का नाम 'प्राकृत' हुआ। काल के अनुसार विद्वानों ने प्राकृत को दो नामों में विभक्त किया है-पुरानी या पहली प्राकृत और दूसरी। पहली प्राकृत 'पाली' भाषा के नाम से प्रसिद्ध है और दूसरी 'प्राकृत' के नाम से। देश-भेद के कारण प्राकृत के भी अनेक भेद हो गए थे, जिनमें से प्रसिद्ध ये हैं—पैशाची, शौरसेनी, मागधी, अर्द्धमागधी और महाराष्ट्रो। पैशाची प्राकृत काश्मीर और अफगानिस्तान में, शौरसेनी प्राकृत गंगा और यमुना के दोआब के पश्चिमी भाग के आसपास, मागधी प्राकृत मगध देश में, अर्द्धमागधी प्राकृत गंगा और यमुना के दोआब के पूर्व में और महाराष्ट्री प्राकृत महाराष्ट्र देश में तथा उसके आसपास बोली जाती थी। कुछ काल के बाद, बौद्धों और जैनों के समय में, प्राकृत भाषाएँ साहित्यारूढ़ हो गई और यहाँ तक नियमों के बंधनों से जकड़ गई कि वे सर्व-साधारण की बोलचाल
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