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विविध विषय
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अब हम उस घटना पर विचार करते हैं जिसका उल्लेख विद्वान् भूमिका - लेखक ने अपने लेख में किया है और जिसको उन्होंने संवत् १५५६ का पोषक माना है । उन्होंने लिखा है" ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह के राजगुरु श्री हरीराम व्यासजी सं० १६२२ के लगभग आपके शिष्य हुए थे ।” परंतु भगवत् मुदितजी की वाणी इस विचार को पुष्ट नहीं करती । भगवत् मुदितजी की वाणी में हरीराम व्यासजी के जीवन चरित का वर्णन है । उससे हमको केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वे ४२ वर्ष की अवस्था के बाद ही श्रीमन्महाप्रभु के दीक्षित हुए थे 1 किंतु विशेष खोज करने पर हमको भगवत् मुदितजी की वाणी में ही वर्णित परमानंददासजी के चरित्र से इस संबंध में बहुत पको बातों का पता चला है । परमानंददासजी क्षत्रिय थे और हुमायूँ बादशाह के मनसबदार थे । बादशाह ने इनको ठट्टे की जागीर दी थी । ये वहीं रहते थे । एक बार पूरनदासजी, जा श्री हितहरिवंशजी के शिष्य थे, भ्रमण करते हुए ठट्ठे में पहुँचे । पूरणदासजी ने
श्चरया करि संदेह नसायौ । श्री हरिवंश का धर्म सुनायौ ॥ यह जु एक मन कौ पद गायौ । व्यासहि कयौ सु अर्थ बतायौ ॥ परमानंददासजी को "यह जु एक मन बहुत ठौर करि कह कौनहिं सचुपायो" श्रादि श्रोहित महाप्रभुजी- कृत श्री चैारासीजी का पद सुनाया । महात्मा भगवत् मुदितजी ने हरीराम व्यासजी के चरित्र में लिखा है कि इसी पद को सुनकर व्यासजी के हृदय पर श्रीमन्महाप्रभुजी के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा था और थोड़ा शास्त्रार्थ करने पर ही वे उनके शिष्य हो गए थे । परमानंददासजी के समय का कुछ पता हमको उनके वर्णित चरित्र से लगता 1 परमानंददासजी हुमायूँ के मनसबदार थे । हुमायूँ का
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