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नागरीप्रचारिणी पत्रिका अँगरेज जाति की धार्मिक सहिष्णुता के कारण उसके द्वारा शासित देशों में हम आज धार्मिक सहिष्णुता का प्रचार देखते हैं और रूस की सोविएट सरकार द्वारा ईश्वर का बहिष्कार किए जाने पर हम सारी रूसी प्रजा को ईश्वर का बहिष्कार करते हुए पाते हैं। अस्तु, हम इस संबंध में अन्य ग्रंथों को उद्धृत नहीं करना चाहते; क्योंकि इससे लेख का कलेवर बहुत बढ़ जायगा। हम इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि श्रीमन्महाप्रभु के जन्म के समय उत्तर भारत सहिष्णु मुसलमान बादशाह द्वारा शासित था, और वह बादशाह बहलोल लोदी के सिवा और कोई नहीं था। बहलोल का राजत्व-काल सं० १५५८ के बदले १५३० में ही था। यहाँ तक तो हमने श्री महात्मा भगवत् मुदितजी की वाणी में वर्णित 'हित-चरित्र पर ही विचार किया है। अब हम श्रीमन्महाप्रभु के जन्म-संवत् के विषय में दो-एक अन्य प्रमाण भी देते हैं ।
पहला प्रमाण तो श्रीमन्महाप्रभु के द्वितीय पुत्र श्री कृष्णचंद्रजी के ग्रंथ 'कर्णानंद' की श्री प्रबोधानंद-कृत टीका का है। प्रबोधानंदजी लिखते हैं
वियद्गुणेषु शुभ्रांषु संख्ये संवत्सरे शुभे। माधवे मासि शुक्लैकादश्यां सोमवासरे ॥ गोस्वामी हरिवंशाख्यो श्रीमन्माथुरमंडने ।
वादग्रामे शुभस्थाने प्रादुर्भूतो महान् गुरुः ॥ इसके अनुसार संवत् १५३० निकलता है। दूसरा प्राचीन प्रमाण श्री 'हितमालिका' ग्रंथ में है। यह संवत् १५५७ में समाप्त हुआ है। इसमें भी जन्म-सं० १५३० ही माना गया है। महात्मा भगवत् मुदिवजी का ग्रंथ इन दोनों ग्रंथों के लगभग १५० वर्ष बाद लिखा गया है। तीसरी बात यह है कि प्रायः सब ग्रंथों में श्रीमन्महाप्रभु के बड़े पुत्र श्री वनचंद्रजी का जन्म-संवत् १५४७ है। इससे भी सं० १५३० पुष्ट होता है।
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