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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
तब सब गुनन परीक्षा लीनी । चारहजारी की विधि दीनी ॥ बड़ी समृद्ध भई इक ठौरी | पातसाह सँग रहे विसि भेोरी ॥
यह वार्तालाप बादशाह का व्यास मिश्र के साथ था । उनके बाद बादशाह ने श्रीमन्महाप्रभु को भी निमंत्रित किया था—
उचारे ॥
है
तैौ ॥ प्रेरे ॥
व्यास मिश्र निज धाम पधारे । पृथ्वीपति तब वचन बहु गुनवंत पुरुष है। ऐसा । सुत हू ताकी खेद सहित नृप चिंता घेरे। मंत्री समाधान कौं कुँवर तुम्हें नृप देखो चाहै । ब्यास मिश्र के गुन श्रवगा है ॥ पट भूषण धन दैहैं भलै । मन सब लेहु नृपति पै चलैा ॥ कुँवर कही तब मधुरी बानी । काल-ग्रसित सब विश्व बखानी ॥ ब्रह्मलेोक लौं नश्वर जानी । नृप संपति की कौन निस्पृहता निर्वेद सुनि कहचैौ नृपति सौं जाइ । की भयौ महापुरुष के भाइ ॥
कहानी ॥
श्रचिरज ताहू
तत्कालीन राजकीय अवस्था के इस वर्णन से यह पुष्ट होता है कि वह समय सांप्रदायिक सहिष्णुता का था । बादशाह की नीति समाधान पूर्ण थी और वह हिंदू विद्वानों का भी समुचित प्रादर करता था । इस नीति का पालन बहलोल लोदी जैसे बादशाह द्वारा ही हो सकता था, सिकंदर लोदी द्वारा संभव न था । व्यास मिश्र के बाद बादशाह के द्वारा हितहरिवंशजी को निमंत्रण देने का वर्णन भी ध्यान देने योग्य है क्या सिकंदर लोदी यह कर सकता था ? क्या उसकी धार्मिक कट्टरता उसको एक हिंदू विद्वान् के पुत्र को केवल पुत्र होने के नाते ही, अपने यहाँ बुलाने के लिये इस प्रकार उत्कंठित कर सकती थी ? इस बात का उत्तर विद्वान पाठक स्वयं दे लें 1 फिर एक स्थल पर महात्मा भगवत् मुदितनी यह लिखते हैं कि जब निकुंजेश्वरी श्री राधिकाजी से
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