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________________ ३५६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका अथवा किन्हीं स्वार्थ-साधकों की बातों से ही अपने को संतुष्ट कर लिया है। जिस स्थल पर हमको शंका हुई है वह श्री हितहरिवंशजी का सूक्ष्म जीवनचरित है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन वैष्णव संप्रदायों का जन्म मध्यकालीन हिंदुओं के धार्मिक दृष्टिकोण को विशाल करने के लिये हुआ था, उन्हीं संप्रदायों के अनुयायी भारतवर्ष के भाग्यविपर्यय से पिछली शताब्दी में कितने संकुचित हृदयवाले हो गए और परस्पर लड़कर किस प्रकार अपनी संचित शक्ति को उन्होंने नष्ट कर दिया। विभिन्न संप्रदायोंवालों के इस काल्पनिक विरोध पर महाकवि बिहारीलाल भी एक बार दुःखी हुए थे। उन्होंने लिखा है अपने अपनै मत लगे, बादि मचावत सोरु । ज्यौं त्यों सबकों सेइबा, एकै नंदकिसोरु ।। प्रस्तु; हमको संतोष इतने ही से होता, यदि यह रोग पिछली शताब्दी तक ही सीमित रहता। परंतु दुःख तो इस बात का है कि नवीन चेतनता तथा सहिष्णुता के इस युग में कुछ लोगों को अब भी कभी कभी इस व्याधि का दौरा हो जाता है ! इसका बुरा परिणाम यह होता है कि जो लोग शुद्ध हृदय से हिंदी साहित्य की सेवा करना चाहते हैं या कर रहे हैं वे भी इन लोगों के द्वारा अपने मार्ग से बहका दिए जाते हैं और लाख प्रयास करने पर भी उनकी इस विचित्र उलझन को सुलझाने का मार्ग नहीं मिलता। अब हम शब्दसागर के लेख की भ्रम-पूर्ण बातों का निराकरण करते हैं। पहली बात तो श्री हरिवंशजी के जन्म-संवत् के विषय में है। शब्दसागर के सुयोग्य भूमिकालेखको ने जन्म-संवत् १५५६ माना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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