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विविध विषय
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यह है कि कोई सच्चा प्राचीन हिंदू स्थान खोदा ही नहीं गया है । यदि योग्य स्थानों की खुदाई की जाय तो शतानीक और सहस्रानीक के कुटुम्बों के चिह्न अवश्य मिलें ।
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जायसवाल महाशय काशी के बाबू दुर्गाप्रसादजी के परिश्रम की बड़ी प्रशंसा करते हैं 1 इन बाबू साहब के पास मुद्राओं का संग्रह बहुत अच्छा है । प्रापने पुराने ठप्पेवाले ( punch-marked) सिक्कों के अध्ययन में बड़ा परिश्रम किया है । इन मुद्राओं में चिह्न ठप्पों से बनाए जाते थे जिनका अर्थ अभी तक कोई नहीं समझता था । आपने इन मुद्राओं के चिह्नों का अर्थ समझने का बहुत कुछ सफल प्रयत्न किया है । इनमें से एक प्रकार के चिह्न - कित मुद्राओं का विश्लेषण ( analysis ) भी किया गया है और उनमें वे ही धातुएँ, उतने ही परिमाण में मिली हैं जो कौटिल्य के अर्थशास्त्र में चाँदी के राज-कार्यापण के लिये बताई गई हैं। बाबू साहब के बी ( B ) विभाग की मुद्राओं पर ऊपर लिखा चंद्रगुप्त का राजांक भी मिलता है । सारनाथ अशोक स्तंभ के नीचे मिली ढली मुद्राओं में और पाटलिपुत्र की मुद्राओं में भी यही राजांक है और उनके निकट एक राज पताका और एक हाथी भी बना है । हाथी और पताका से जान पड़ता है कि पताका के ऊपर हाथी का चिह्न बना रहता था । ग्रीक लेखकों ने लिखा है कि चंद्रगुप्त को हाथी ने अपनी पीठ पर बिठा लिया था और सिंह ने उसे चाटा भी था । इस लेख को लोग अभी तक एक कल्पना ही समझते थे पर अब जान पड़ता है कि यह कथा तक्षशिला में इसलिये प्रचलित हुई कि चंद्रगुप्त के तक्षशिला कार्षापणेों में राजांक हाथी की पीठ पर और खुले मुँह जीभ निकाले सिंह के सामने स्थित है । ऐसे ही एक कारण से मुसलमान लेखकों ने सिकंदर को एक सींगवाला बताया है । अब अशोक की मुद्राओं को भी पहचान सकना
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