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नागरीप्रचारिणी पत्रिका के नाम का एक राजचिह्न ( राजांक ) भी बना हुआ है। दो लगी हुई महराबों या गोलाइयों के ऊपर तीसरी महराब और उसके ऊपर चंद्रमाच। पहले ऐसी आकृति को कोई मेरु पर्वत और कोई स्तूप ( बताता था । ब्राह्मो अक्षर ग और दोत मिलने पर ये तीन महराबें बनती हैं और ऊपर के चंद्र को मिलाकर पूरा नाम चंद्रगुप्त होता है। डेढ़ शताब्दी पीछे ऐसा ही चिह्न अग्निमित्र की मुद्राओं पर मिलता है और उसके निकट 'मो' अक्षर लिखा रहता है जिसका अर्थ मौर्य होता है। यही चंद्रगुप्तवाला राजांक पुराने पाटलिपुत्र के मौर्यप्रासाद की खुदाई में, कुम्हरार में मिले स्तंभ पर भी पाया जाता है और उस अंक के निकट मौर्य शब्द पूरे अक्षरों में भी लिखा है। पुराने पाटलिपुत्र की खुदाई में मौर्यकाल की गहराई पर मिले दस ढले सिक्कों पर भी वही अंक मिला है। सारनाथ में अशोक-स्तंभ की नींव में एक मुद्रा मिली थी। उस पर भी वही अंक है। पुराने पाटलिपुत्र के किले के रक्षक सैनिकों को जो मिट्टी के बर्तन दिए जाते थे उन पर भी यही अंक मुद्रित है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित राजांक यही जान पड़ता है। इस निश्चय से भारतवर्ष की अति प्राचीन मुद्राओं ( Punch-marked coins ) के पढ़ने में बहुत सुविधा होगी। मनुस्मृति में इन्हें पुराण, पण, कार्षापण प्रादि नाम दिए गए हैं।
भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के कार्य की ओर दृष्टिपात करते हुए जायसवाल महाशय भारतवासियों की उदासीनता पर बड़ा दुःख प्रकट करते हैं। उनकी उदासीनता के कारण इस विभाग को बहुत कम द्रव्य मिलता है। अभी तक कोई महत्त्व की खुदाई बुद्ध-काल के पूर्व के स्थानों पर नहीं हुई। महेंजोदरो की परख तो आर० डी० बनर्जी की विशाल बुद्धि के कारण हुई। बुद्ध के पूर्व का कोई ब्राह्मी लेख अभी तक नहीं मिला है। इसका कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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