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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
[३] गत वर्ष के दिसंबर मास में इंडियन ओरिएंटल कान्फरेंस का सातवा अधिवेशन बड़ोदा नगर में,श्री काशीप्रसाद जायसवालजी के अधिपतित्व में, हुअा। उस अवसर पर उनका भाषण बड़े महत्त्व का था, क्योंकि उसमें पुरातत्व के सब विभागों की उन्नति का दिग्दर्शन कराया गया था और यह भी दिखाया गया था कि भविष्य में उन्नति किस दशा में होगी। उनके भाषण की प्रधान बातो का संक्षिप्त सार पाठकों के लिये यहाँ दिया जाता है।
प्रथम तो इस ओर ध्यान दिलाया गया कि डाक्टर प्राणनाथ के परिश्रम से प्राय: यह सिद्ध होता है कि महेंजोदरो और हरप्पा की मुहरों की लिपि इलाम, साइप्रस और क्रीट की तथा और अधिक दूर की कुछ पुरानी लिपियों से मिलती-जुलती है। ऐसा जान पड़ता है कि एक ही प्रकाश की धारा सिंधु नदी से एटलांटिक महासागर तक प्रवाहित थी। मिस्टर पिकोली 'इंडियन ऐंटीक्वेरी' नवंबर १६३३ में लिखते हैं कि सिंधुलिपि इट्र रिया के पुराने बर्तनों और कबरों की वस्तुमों पर लिखे अपठित संकेतों से मिलती है। एक दूसरे महाशय गिलाम डि हेवेसी ने अपने एक लेख में बताया है कि सिंधु अक्षरों में के ५२ अक्षर पैसिफिक अथवा प्रशांत महासागर के ईस्टर द्वीप में मिली ईटों पर ठीक उसी रूप में पाए जाते हैं। स्वयं भारतवर्ष में, संबलपुर जिले के विक्रमखोल प्राम में, एक चट्टान-लेख मिला है जो सिंधुलिपि और ब्राह्मो की मध्यस्थिति का है। बक्सर और पाटलिपुत्र में भी कुछ ऐसी मूर्तियों मिली हैं जिनसे प्रकट होता है कि सिंधु नदी की सभ्यता पटना तक अवश्य थी । वह पश्चिम में भारतवर्ष से भूमध्यसागर तक निस्संदेह फैली हुई थी। महाभारत के एक लेख से जान पड़ता है कि उसके बनने के समय काठियावाड़ के पश्चिम तट पर विचित्र प्रकार की मुहरें ( Seals)
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