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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय
२६ यह भावना रामानंद में ही पूर्ण हो गई थी, कबीर ने उसको प्रतीक का वह आवरण दिया जिसमें "मजनू को अल्लाह भी लैला नजर प्राता है।" प्रारंभिक शास्त्रार्थों की कटुता को जाने दीजिए, उसका सामना तो प्रत्येक नवीन विचारशैली को करना पड़ता है; परंतु वैसे इस नवीन विचारशैली में कोई ऐसी बात न थी जिससे कोई भी समझदार हिंदू अथवा मुसलमान भड़क उठता। मूर्ति परमात्मा नहीं है, यह हिंदुओं के लिये कोई नवीन बात नहीं थी। उनके उच्चातिउच्च वेदांती दार्शनिक सिद्धांत इस बात की सदियों से घोषणा करते चले पा रहे थे और मूर्तिभंजक मुसलमानों को तो यह बात विशेष रूप से रुची होगी। यद्यपि हिंदू अद्वैतवाद, जिसे कबीर ने स्वीकार किया था, मुसलमानी एकेश्वरवाद से बहुत सूक्ष्म था तथापि दोनों में ऐसा कोई स्थूल-विरोध दृष्टिगत न होता था जिससे वह मुसलमान को अरुचिकर लगता। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य और परमात्मा की एकता की भावना मुसलमानों की अल्लाह-भावना के बिलकुल विपरीत है, जो समय समय पर मुस्लिम धार्मिक इतिहास में कुफ्र करार दी गई है और प्राणहानि के दंड के योग्य मानी गई है, फिर भी सूफी मत ने, जिसे कुरान का वेदांती भाष्य समझना चाहिए, मुसलमानों को उसका घनिष्ठ परिचय दे दिया था। मंसुर हल्लाज ने 'प्रनलहक' (मैं परमात्मा हूँ) कहकर सूली पर अपने प्राण दिए। इस कोटि के सच्ची लगनवाले सूफियों ने धर्मांध शाही और सुलतानों के प्रत्याचारों की परवा न कर भली भाँति सिद्ध कर दिया कि उनका मत और विश्वास ऐसी वास्तविक सत्ता है जिसके लिये प्रसन्नता के साथ प्राणों का वलिदान कर दिया जा सकता है। अतएव जब इस नवीन विचारधाराने उपनिषदों के स्वर में स्वर मिलाते हुए 'सोऽहं' की घोषणा की तो वह मुसलमानों को भड़कानेवाली बात न रह गई थी।
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