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नागरीप्रचारिणी पत्रिका (६) उसके पास ही से मार्ग था।
(७ ) इस स्थान से नगर का पूर्वद्वार बहुत दूर न था, क्योंकि जटिलो के लिये 'नगर को जाते थे' न कहकर 'नगर में प्रवेश करते थे' कहा है।
(८) संभवत: पूर्वाराम' की तरफ की ओर भी, जटिल, निगंठ ( = जैन ), अचेलक, एकसाटक और परिव्राजक साधुओं के विहार थे, जहां से वे नगर में जा रहे थे।
पृष्ठ २८२ में हम बतला चुके हैं कि किस प्रकार विशाखा का 'महालता आभूषण' एक दिन जेतवन में छूट गया था । विशाखा ने तथागत से कहा- "भंते ! आर्य आनंद ने मेरे पाभू. षण को हाथ लगाया...। उसको देकर, ( उसके मूल्य से) चारों प्रत्ययों में कौन प्रत्यय ले आऊँ ? विशाखा ! पूर्व द्वार पर, संघ के लिये वासस्थान बनाना चाहिए। अच्छा भंते ! यह कहकर तुष्टमानसा विशाखा ने नव करोड़ में भूमि ही खरीदी। अन्य नव करोड़ से विहार बनाना प्रारंभ किया।...एक दिन अनाथपिडिक के घर भोजन करके शास्ता उत्तर द्वार की ओर हुए।...उत्तर द्वार जाते हुए देख चारिका को जाएँगे...यह सुन...विशाखा ने जाकर... कहा-भंते ! कृताकृत जाननेवाले एक भिक्षु को लौटाकर (= देकर) जाएँ। वैसे ( भिक्षु ) का पात्र ग्रहण करो।...विशाखा ने ऋद्धिमान् समझ महामोग्गलान का पात्र पकड़ा।...उनके अनुभाव से पचास-साठ योजन पर वृक्ष और पाषाण के लिये प्रादमी गए । बड़े बड़े पाषाणों और वृक्षों को लेकर उसी दिन लौट आते थे।... जल्दी ही दो-महला प्रासाद बना दिया गया, निचले तल पर पांच सौ गर्भ ( = कोठरियाँ) और ऊपर की भूमि (= तल) पर पांच सौ गर्भ,
(१) वर्तमान हनुमनवाँ । (२) ध० प०, ४:८;, अ० क०, १६९, ३८-३९ ।
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