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जेतवन
३०३ भगवान्...पूब्बाराम में...सायंकाल ध्यान से उठकर बाहरी द्वार के कोठे के बाहर बैठे थे ।...( उस समय ) राजा प्रसेनजित् भगवान् के पास पहुँचा।...उस समय सात जटिल, सात निर्गठ, सात अचेलक,सात एकसाटक और सात परिव्राजक, नख, लेोम बढ़ाए अनेक प्रकार की खारिया लेकर भगवान् के अविदूर से जाते थे। तब राजा...आसन से उठकर, उत्तरासंग को एक कंधे पर कर, दहिने घुटने को भूमि पर रख, उन सातो...की ओर अंजलि जोड़ तीन बार नाम सुनाने लगा-भंते ! मैं राजा प्रसेनजित् कोसल हूँ... ।
इस पर अट्ठकथा- "बाहरी द्वार का कोठा-प्रासाद -द्वारकोटक के बाहर, विहार के द्वारकोटक से बाहर का नहीं । वह प्रासाद लौहप्रासाद की भांति चारों ओर चार द्वारकोटकों से युक्त, प्राकार से घिरा था। उनमें से पूर्व द्वारकोढ़क के बाहर प्रासाद की छाया में पूर्व दिशा की ओर मुँह करके...बैठे थे। अविदूर से, अर्थात् अविदूर मार्ग से नगर (= श्रावस्ती) में प्रवेश करते थे।" __इससे हमें निम्न-लिखित बातें मालूम होती हैं
(१) पूर्वाराम के प्रासाद के चारों ओर चार फाटकवाली चहारदीवारी थी।
(२) अनुराधपुर का लौहप्रासाद और पूर्वाराम का प्रासाद कई अंशों में समान थे। संभवतः पूर्वाराम के नमूने पर ही लौहप्रासाद बना था।
( ३ ) इसके चारों तरफ चार दाजे थे।
(४) सायंकाल को पश्चिम द्वार के बाहर बैठकर ( जाड़े में ) प्राय: तथागत धूप लिया करते थे।
(५) जहाँ राजा प्रसेनजित् तथा दूसरे संभ्रांत व्यक्ति भी उपस्थित होते थे।
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